दूसरे परमाणु सुरक्षा शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चार दिवसीय दक्षिण कोरिया यात्रा अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस यात्रा में उन्हें न केवल दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति ली म्यूंग बाक के साथ द्विपक्षीय बैठक करनी है, बल्कि पूरी संभावना है कि इस सम्मेलन के इतर उनकी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के साथ भी मुलाकात होनी है। भारत की व्यापक लुक ईस्ट पालिसी को देखते हुए मनमोहन सिंह और दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति की मुलाकात का महत्व बहुत बढ़ गया है। स्पष्ट है कि भारत के लिहाज से सियोल एजेंडा एक महत्वपूर्ण कदम है, क्योंकि नई दिल्ली को क्षेत्रीय और वैश्विक पटल पर अपनी मजबूत प्रासंगिकता के संकेत देने हैं। भारत अपने घर में राजनीतिक रूप से चाहे जैसी कठिनाइयों का सामना कर रहा हो और गठबंधन की राजनीति की बाध्यताओं के कारण प्रधानमंत्री के हाथ बंधे हों, लेकिन विदेश नीति के लिहाज से यह सम्मेलन अपने साथ एक विशेष अवसर लाया है। मनमोहन सिंह की दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति के साथ-साथ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के साथ मुलाकात का निष्कर्ष भारत पर गहरा असर डालेगा और यह संप्रग-2 के कार्यकाल से कहीं आगे जाएगा। भारत ने सामरिक दृष्टि से दक्षिण कोरिया पर अब तक पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है। जब एशिया की बात आती है तो सारा ध्यान चीन और पाकिस्तान पर और कुछ हद तक जापान पर लगा दिया जाता है। भारत को अपनी लुक ईस्ट पालिसी के तहत दक्षिण कोरिया पर अधिक से अधिक ध्यान देना होगा, क्योंकि उसके पास एक बहुत प्रभावशाली राष्ट्रीय पहचान है। आज दक्षिण कोरिया विश्व की 15वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। उसकी कुल जीडीपी 1.2 खरब डालर है और मौजूदा समय प्रति व्यक्ति आय 35000 डालर है। 2016 तक इसके 40000 डालर पहुंचने के आसार हैं। दक्षिण कोरिया का मजबूत औद्योगिक आधार और उच्च तकनीकी सामर्थ्य को पूरे विश्व में स्वीकार किया जाता है। भारत के लिए ऐसे तमाम अवसर हैं जिससे वह दक्षिण कोरिया के साथ राजनीतिक, आर्थिक, औद्योगिक और सैन्य संपर्क स्थापित कर सकता है और इस देश की क्षमताओं से लाभान्वित हो सकता है। भारत को पूर्वी एशिया में महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं के साथ दीर्घकालिक सहयोग कायम करने की आवश्यकता है। इस लिहाज से जापान, ताइवान और समग्र रूप सेआसियान देशों की अनदेखी नहीं की जा सकती। इन सभी संपर्को को यदि सही तरह आगे बढ़ाया जा सके तो भारत के लिए चीन सरीखे हैवीवेट का सामना करना कहीं अधिक आसान होगा। उम्मीद है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मौजूदा सियोल बैठक दक्षिण कोरिया के साथ उन द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने का काम करेगी जिनकी नींव उस समय डाली गई थी जब राष्ट्रपति ली को जनवरी 2010 में गणतंत्र दिवस परेड के मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था। सियोल हाल के वैश्विक आर्थिक संकट के समय राष्ट्रपति ली के नेतृत्व में संयत बना रहा। अमेरिका का सैन्य सहयोगी दक्षिण कोरिया खुद को एक ऐसी स्थिति में स्थापित करना चाहता है जिससे वह वैश्विक और क्षेत्रीय चुनौतियों के प्रबंधन में कहीं अधिक प्रभावशाली ढंग से योगदान दे सके। वैश्विक स्तर पर सियोल ने नवंबर 2010 में जी-20 सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में मनमोहन सिंह के भाषण को ध्यान से सुना गया था। अब दक्षिण कोरिया नाभिकीय सुरक्षा पर 53 देशों के सम्मेलन का आयोजन करने जा रहा है। नाभिकीय एजेंडे पर राष्ट्रपति ओबामा की व्यक्तिगत रुचि ने इस सम्मेलन का महत्व बढ़ा दिया है। सियोल ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मौजूदा नाभिकीय सुरक्षा सम्मेलन मुख्य रूप से गैर-सरकारी तत्वों की भूमिका औरविखंडनीय सामग्री की चोरी पर अंकुश लगाने के तरीके तलाशने पर केंद्रित है। सम्मेलन में उत्तर कोरिया के मुद्दे पर भी चर्चा होने के आसार हैं। इसी तरह ईरान द्वारा अपने नाभिकीय कार्यक्रम के जरिए उत्पन्न किया जा रहा खतरा भी एजेंडे में होगा। नाभिकीय सुरक्षा अपने आप में एक बहुत बड़ा मुद्दा होगा। इस संदर्भ में यह याद रखने की जरूरत है कि मार्च 2011 में दुनिया फुकुशिमा त्रासदी से स्तब्ध रह गई थी और भारत समेत अनेक देशनाभिकीय ऊर्जा की व्यावहारिकता के संदर्भ में अपनी दीर्घकालिक योजना पर फिर से विचार कर रहे हैं। वैश्विक समुदाय के लिए सामूहिक चिंता का विषय नाभिकीय हथियारों और लंबी दूरी की मिसाइलों का संबंध है। नाभिकीय हथियारों से संबंधित आतंकी खतरा बहुत बड़ा है। ईरान और उत्तर कोरिया के संदर्भ में अमेरिका की बेचैनी का सबसे बड़ा कारण यही है। क्या प्योंगयांग और तेहरान अमेरिका के लिहाज से नियंत्रण से और अधिक बाहर हो जाएंगे। बिल क्लिंटन के जमाने से अमेरिकी राष्ट्रपति इस जटिल चुनौती का सामना करने की कोशिश करते रहे हैं। दुर्भाग्य से भारत के लिए भी यह खतरा कम गंभीर नहीं है। अमेरिका और उसके सहयोगी पूरी कोशिश कर रहे हैं कि नाभिकीय हथियारों से संबंधित आतंकवाद का खतरा एक सच्चाई न बनने पाए। इसीलिए इराक का युद्ध लड़ा गया था। अब इसकी आशंका जताई जा रही है कि इराक की तरह ईरान को निशाना बनाया जा सकता है। भारत के लिए नाभिकीय हथियार संबंधी आतंकी खतरा मई 1990 के बाद से एक वास्तविक खतरा है। मुंबई पर 2008 में हुए आतंकी हमले तथा एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन को मार गिराने के लिए अमेरिकी अभियान के बाद पूरी दुनिया भी इस खतरे की तपिश महसूस करने लगी है। जो भी हो, अमेरिका इस आरोप से बच नहीं सकता कि उसके द्वारा अल्पकालिक हितों को तरजीह देने के कारण यह खतरा गंभीर हुआ है। पाकिस्तान के बदनाम नाभिकीय वैज्ञानिक अब्दुल कादिर खां द्वारा उत्तर कोरिया को किया गया नाभिकीय प्रसार इसकी मजबूत बानगी है। यह हैरत की बात है कि पाकिस्तान की सेना भी इस हकीकत पर पर्दा डाले रही। इस बिंदु पर ही मनमोहन सिंह और गिलानी की बैठक महत्वपूर्ण हो जाती है। अपने-अपने देश की घरेलू स्थिति के बावजूद दोनों नेताओं को भारत-पाकिस्तान संबंधों को स्थिर बनाने के अपने दीर्घकालिक एजेंडे पर ध्यान बनाए रखने की जरूरत है।