Monday, March 5, 2012

चुनाव बाद आम आदमी की चुनौतियां

-हर्षवर्धन त्रिपाठी


देश में सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चुनावी मौहाल के बीच ज्यादातर आर्थिक या फिर आम लोगों की जेब से ताल्लुक रखने वाले मसलों पर खबरें चर्चा में हैं। यह समझने की बात है कि औद्योगिक रफ्तार से लेकर सेंसेक्स की चाल तक और महंगाई के बढ़ने की रफ्तार आदि संभल कैसे गई है? फरवरी के मध्य में बांबे स्टॉक एक्सचेंज का अहम सूचकांक सेंसेक्स छह महीने के सबसे ऊंचे स्तर पर बंद हुआ और इसकी सबसे बड़ी वजह दिख रही है महंगाई दर का तेजी से घटना और ब्याज दरों में कमी होने के आसार। इस दिन आंकड़े बता रहे थे कि महंगाई के बढ़ने की रफ्तार सात प्रतिशत से भी नीचे आ गई है। यह 26 महीने में महंगाई दर के बढ़ने की सबसे कम रफ्तार थी। तो क्या बजट के ठीक पहले और यूपी चुनावों के समय आ रही इन शानदार खबरों के बूते हम भारतीय अर्थव्यवस्था की तरक्की की रफ्तार फिर से दो अंकों की तरफ ले जाने वाला सपना देखना शुरू कर सकते हैं? चुनाव की मारामारी है तो जाहिर है कि मीडिया के पास चुनावी मुद्दों के अलावा किसी खबर में बाल की खाल निकालने की समय भी नहीं है, लेकिन शायद यह तस्वीर उतनी सुनहरी है नहीं, जितनी दिख रही है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले 16 नवंबर को तेल कंपनियों ने पेट्रोल के दाम करीब 2 रुपये यह कहकर घटाया था कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें घटी हैं और इसलिए हम ये कीमतें घटा रहे हैं। हालांकि इससे पहले 26 जून, 2010 से पेट्रोल की कीमतें तय करने का अधिकार मिलने के बाद तेल कंपनियों ने पेट्रोल की कीमत करीब 48 रुपये से बढ़ाकर 70 रुपये प्रति लीटर के आसपास पहुंचा दिया था। जून 2010 से जनवरी 2011 तक पेट्रोल का दाम इसी नीति के तहत 58 रुपये प्रति लीटर के ऊपर हो गया था, लेकिन इसके बाद जनवरी 2011 से लेकर 14 मई 2011 तक पेट्रोल की कीमतें बिल्कुल भी नहीं बढ़ीं। सवाल यह है कि क्या उस दौरान कच्चे तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में घट गई थीं या स्थिर थीं। स्वाभाविक है कि ऐसा बिल्कुल नहीं था। दरअसल, 18 अप्रैल से 10 मई तक पश्चिम बंगाल और दूसरे कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने थे और इस वजह से जनवरी से पेट्रोल की कीमतें तय करने का अधिकार मिलने के बावजूद मार्केटिंग कंपनियां पेट्रोल के दाम बढ़ाने के बजाय पेट्रोल पर घाटा सहती रहीं। जबकि इस दौरान अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल जनवरी के ़93.87 डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर मई में 110.65 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई, लेकिन राजनीतिक मजबूरी में सरकार ने तेल कंपनियों को जनता के टैक्स के पैसे से अंडर रिकवरी देना ज्यादा मुनासिब समझा न कि तेल मार्केटिंग कंपनियों को पेट्रोल के भाव बढ़ाने की इजाजत देना। इन तीन चार महीनों में पेट्रोल के दाम बढ़ाने की इजाजत न देने से तेल कंपनियों का घाटा पचास हजार करोड़ रुपये से ज्यादा बढ़ गया। अप्रैल में तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें 118.46 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई, लेकिन फिर भी सरकार ने कीमतें नहीं बढ़ाया। कुछ हद तक पिछले साल जनवरी से अप्रैल-मई वाले हालात इस समय भी हैं। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश समेत 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं और सरकार इस समय पेट्रोल के दाम बढ़ाने की इजाजत तेल कंपनियों को देने का खतरा नहीं उठा सकती। केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस को लगता है कि उत्तराखंड, पंजाब में वह सत्ता छीन सकती है और यूपी में पहले से काफी अच्छा प्रदर्शन करेगी। ऐसे में मुस्लिम आरक्षण के लुभावने मीठे चुनावी वादे के साथ वह महंगे पेट्रोल की कड़वाहट जनता को देने से बचना चाह रही है। वह भी तब, जब जनवरी में एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल 110.47 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई है। दिसंबर में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का भाव 107.20 डॉलर प्रति बैरल था। यानी दिसंबर से जनवरी में कच्चा तेल करीब तीन डॉलर प्रति बैरल से ज्यादा महंगा हो गया है, लेकिन तेल कंपनियां पेट्रोल के दाम नहीं बढ़ा रही हैं। 13 फरवरी को उत्तर प्रदेश के चुनावी माहौल के बीच में इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन के चेयरमैन आरएस बुटोला ने कंपनी के तिमाही नतीजों का ऐलान किया। उन्होंने बताया कि पेट्रोल पर तेल कंपनियों का घाटा तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन पत्रकारों के बार-बार पूछने पर भी वह ये नहीं बता सके कि हर 15 दिन में समीक्षा के बावजूद अभी तक पेट्रोल के दाम क्यों नहीं बढ़े? जनवरी से अब तक पेट्रोल पर सिर्फ इंडियन ऑयल को ही 362 करोड़ रुपये का घाटा हो चुका है। जाहिर है, दूसरी तेल कंपनियों का घाटा मिलाकर यह रकम और ज्यादा होगी। इसकी भरपाई जनता की गाढ़ी कमाई से वसूले गए टैक्स से ही की जानी है तो फिर यह रकम सीधे पेट्रोल की कीमत बढ़ाकर ही सरकार क्यों नहीं वसूल लेती? जवाब साफ है, प्रधानमंत्री अर्थशास्त्री हैं तो क्या हुआ, अर्थनीति पर राजनीति भारी पड़ ही जाती है। अब कम से कम 6 मार्च यानी मतगणना के दिन तक तो पेट्रोल महंगा नहीं ही होगा, लेकिन इसके तुरंत बाद पेट्रोल के दाम कम से कम तीन रुपये प्रति लीटर बढ़ना तय है। वह भी तब जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल और महंगा न हो। उसकी उम्मीदें कम इसलिए हैं, क्योंकि भारत और जॉर्जिया में हमले में जिस तरह से ईरान के तार जुड़ रहे हैं और यूरोपीय और अमेरिकी देशों के साथ तनाव बढ़ रहा है। इससे कच्चे तेल के सस्ते होने की उम्मीदें कम ही हैं। देश पहले से ही वित्तीय घाटे से जूझ रहा है। खुद वित्त मंत्री कह चुके हैं कि वित्तीय घाटा संभालना उनके लिए सबसे बड़ी प्राथमिकता है। ऐसे में अर्थनीति पर भारी राजनीति की वजह से पेट्रोल की कीमतों का घाटा सरकारी खजाने को चोट पहुंचाएगा उससे मुश्किल और बढ़ेगी। फिर पेट्रोल के दाम बढ़े तो कुछ न कुछ महंगाई बढ़ेगी ही, जिसे समझने के लिए अर्थशास्त्री होने की जरूरत नहीं है। अगर महंगाई नहीं भी बढ़ी तो हर रोज चलने वाली स्कूटर से लेकर कार तक का पेट्रोल बिल तो बढ़ ही जाएगा। उस पर रिजर्व बैंक के ब्याज घटाने का असर तुरंत तो होने से रहा, क्योंकि एक साथ आधा प्रतिशत से ज्यादा तो ब्याज घटेगा नहीं और बैंक उसको ग्राहकों तक पहुंचाने में कम से कम महीने भर का समय तो लगा ही देंगे। अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल महंगा होने से पेट्रोल और महंगा करना पड़ा तो सीधे महंगाई की मार और डीजल और दूसरे पेट्रोलियम उत्पादों पर सब्सिडी की वजह से सरकारी खजाने पर पड़ना तय है। ऐसे में तब धड़ाधड़ भारतीय शेयर बाजार में रकम लगा रहे विदेशी निवेशक कितनी देर तक सेंसेक्स-निफ्टी थामेंगे यह देखने वाली बात होगी, क्योंकि सेंसेक्स में दिसंबर से अब तक करीब बीस प्रतिशत का मुनाफा उन्हें साफ दिख रहा होगा। चुनावी राजनीति और लुभाने वाली खबरों का यह संयोग अर्थव्यवस्था को आगे मुश्किल राह पर ले जाता दिख रहा है।

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