Sunday, February 26, 2012

संघष और प्रतिरोध के सौ वष

दषिाण अफ्रीका में 1912 में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस की स्थापना में महात्मा गांधी का महत्वपूण सहयोग था, जिन्होंने तब तक रंगभेद के खिलाफ व्यापक जनसंघष की शुरुआत कर दी थी

आज से सदी भर पहले जनवरी 1912 में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस की स्थापना अफ्रीका के इतिहास में अविस्मरणीय घटना थी उसके साथ अफ्रीका महाद्वीप के शताब्दियों लंबे शोषण और अपमान की समाप्ति की शुरुआत हुइ वैसे, उस समय न तो दुनिया ने और न ही दषिाण अफ्रीका की गोराशाही ने उस पर कोइ ध्यान दिया था मोहनदास करमचंद गांधी उस समय निष्क्रिय प्रतिरोध आंदोलन में ठहराव आने के कारण जोहानिसबग के निकट अपने ताल्सताय फॉम पर ट­ांसवाल आंदोलनकारियों के कैदियों के परिवारों और जेल से छूट कर आये आंदोलनकारियों की देखभाल कर रहे थे और उन्होंने इस घटना को ‘अफ्रीका के जागरण का प्रतीक’ कहते हुए उसका स्वागत किया था



सन् 1906 से गांधी अहिंसक क्रांतिकारी और जन नेता बन चुके थे; क्योंकि वे यह बात अच्छी तरह समझ गये थे कि दमनकारी कानूनों और प्रतिबंधों के विरोध में प्रप्रतिनिधिमंडल या निवेदन पत्र नस्ल परस्त गोराशाही की सेवा में भेजना बेकार व बेमानी है उन्होंने ट­ांसवाल में बसे भारतीयों पर अनुमति-पत्र (पास) साथ रखने का नियम थोपे जाने का विरोध और दमनकारी कानूनों और नियमों का उल्लंघन करने का निश्चय कर लिया और एक जबरदस्त प्रतिरोध आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसमें ट­ांसराल निवासी भारतीय पुरुषों में से लगभग एक तिहाइ जेल में पहुंच गये थे



उससे पहले ही गांधी का अखबार ‘इंडियन ओपिनियन’ ‘धरती के बेटों’ अथात् अफ्रीकियों पर गोराशाही के ब़ढते दमन का विरोध करने लगा था 18 मइ 1908 को जोहानिसबग के वाइएमसीए सभागार में हुइ एक जनसभा में उन्होंने भावी दषिाण अफ्रीका के संबंध में अपने सपने का वणन इन शब्दों में किया था, ‘अगर हम भविष्य में झांकें तो हमें जो विरासत छोड़नी है वह यह होगी कि तमाम जुदा-जुदा नस्लें घुल-मिल जायें और एक ऐसी संस्कृति का निमाण करें, जिस प्रकार की संस्कृति के दशन दुनिया ने पहले कभी नहीं किये’ मगर अल्पसंख्यक बोअरों और अंगरेजों का सपना कुछ और ही था वे दषिाण अफ्रीका को संघ राह्लय बनाना और उसे गोरों के मुल्क की शक्ल देना चाहते थे, जिसमें वहां की बहुसंख्यक आबादी केवल गोरों की जरूरतें पूरी किया करे अफ्रीकी नेताओं की भांति ही गांधी ने भी इस पैशाचिक योजना के भावी परिणामों को भांप लिया था और प्रस्तावित संघ राह्लय को दषिाण अफ्रीका की ‘अश्वेत आबादी के विरुद्ध संगठन’ का नाम दिया था



जब ब्रिटेन ने दषिाण अफ्रीकी संघ राह्लय गठित करने और अफ्रीकियों तथा मिश्र नस्ल (कलड) के लोगों की अपीलों और विश्वास को धता बताते हुए, दषिाण अफ्रीका के शासन की बागडोर अल्पसंख्यक गोरों को सौंप देने की मंजूरी दे दी, तो जोहानिसबग के चार अफ्रीकी मुख्तारों ने अफ्रीकियों के हितों के रषाथ एक राष्ट­ीय महासभा कायम करने का उद्देश्य से तमाम अफ्रीकी संगठनों का समावेश बुलाने का फैसला किया इसमें पहल की थी पिकस्ले के इजाका सेमे नाम के अफ्रीकी सह्लजन ने सेमे गांधी के फीनिक्स आश्रम के निकट ही इनांडा में जन्मे थे और निश्चय ही वे गांधी से परिचित रहे होंगे, क्योंकि अपनी समस्त शक्ति निष्क्रिय प्रतिरोध आंदोलन को अपित कर देने का निश्चय करने से पहले गांधी जोहानिसबग में ही वकालत करते थे



गांधी को ताल्सताय के लिखे आखिरी पत्र का रूसी से अंगरेजी में अनुवाद करने वाली महिला पाउलिन पोड्लाशुक के संस्मरणों से हाल में यह बात सामने आयी है कि 1911 में सेमे ने ताल्सताय फाम आकर गांधी से मुलाकात और लंबी बातचीत की थी, जिसके दौरान गांधी ने भारतीयों के निष्क्रिय प्रतिरोध आंदोलन का मम सेमे को समझाया था 1911 में 19 जुलाइ को गांधी के अखबार ‘इंडियन ओपिनियन’ ने ऊपर बताये अफ्रीकी समावेश की तैयारियों की प्रगति के बारे में सेमे के साथ हुइ बातचीत की खबर दी समावेश 8-12 जुलाइ 1912 को ब्लोम फ्रांटेन में हुआ और उसमें ‘साउथ अफ्रीकन नेटिव नेशनल कॉन्फ्रेंस’ की स्थापना हुइ, जिसका नाम आगे चलकर ‘अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस’ कर दिया गया नाताल के निवासी रेवरैंड जॉन लांगाबिलेले ड्यूबे को उसका अध्यषा चुना गया, हालांकि वे उस समावेश में उपस्थित नहीं थे (ड्यूबे का अचेहलांगे इंडस्टि­यल स्कूल गांधी के फीनिक्स आश्रम के निकट ही था) ड्यूबे ने साउथ अफ्रीकन नेटिव नेशनल कांग्रेस के मुखियाओं व अन्य महानुभावों को पत्र के जरिये धन्यवाद दिया और पत्र को अपने अखबार ‘इलांगे लासे नाल’ में दो फरवरी के अंक में छापा इस पत्र को ‘इंडियन ओपिनियन’ ने 10 फरवरी के अंक में ‘अफ्रीका का जागरण’ (द एवेकनिंग ऑफ अफ्रीका) शीषक से छापा और ‘घोषणापत्र’ कहा



जब दषिाण अफ्रीकी संसद में नेटिव्स लैंड एक्ट (देशीय भूमि अधिनियम) पारित हुआ, गांधी ने कड़ा विरोध किया ‘इंडियन ओपिनियन’ ने एक संपादकीय में घोषित किया कि ‘संघीय संसद में नेटिव्स लैंड एक्ट के पारित होने से लोग भौंचक्के रह गये हैं सचमुच अब अन्य सभी प्रश्न, जिनमें भारतीयों का प्रश्न भी शामिल है, देशीयों (नेटिव्स) के महाप्रश्न के आगे महत्वहीन हो जाते हैं यह देश जन्म से देशीयों का है और जमीन जब्ती का यह कानून (वस्तुत: यह जब्ती से कुछ भी कम नहीं है) गंभीर समस्याओं को जन्म दे सकता है’

1913 दषिाण अफ्रीका में अफ्रीकियों, मिश्र नस्ल वालों (कलड) और भारतीयों के निष्क्रिय प्रतिरोध का वष भी रहा उस वष जून में अफ्रीकी और मिश्र नस्ल की औरतों ने ओरेंज फ्रीस्टेट में उस नये कानून के खिलाफ निष्क्रिय प्रतिरोध शुरू किया, जिसके तहत अनुमति-पत्र (पास) अपने साथ रखना ियों के लिए अनिवाय कर दिया गया था साउथ अफ्रीका ने नेटिव नेशनल कांग्रेस ने उस आंदोलन का पूण समथन किया और अंत में सरकार को औरतों के लिए अनुमति-पत्र का नियम उठा लेना पड़ा सितंबर 1913 में भारतीय समुदाय ने यह निष्क्रिय प्रतिरोध आरंभ किया था

इरान संकट से ब़ढती वैश्विक चुनौती

इरान के परमाणु कायक्रम को लेकर अमेरिका के साथ इरान की शुरू से तकरार रही है हाल की कइ घटनाओं ने इस आग में घी डालने जैसा काम किया है इरान जहां अपने परमाणु कायक्रम को देश के विकास के लिए जरूरी बता रहा है, वहीं अमेरिका सहित कइ पश्चिमी देश उस पर परमाणु अप्रसार संधि को भंग करने का आरोप लगा रहे हैं इससे हालात युद्ध के बन गये हैं हालांकि भारत और चीन इरान पर अमेरिकी नीति से सहमत नहीं हैं इरान संकट के बहाने अंतरराष्ट­ीय सोच के विभित्र पहलुओं की पड़ताल करता आज का नॉलेजl




अमेरिका की चेतावनी और धमकी को धता बताकर इरान अपने परमाणु कायक्रम की तरफ लगातार आगे ब़ढ रहा है इस बीच खार खाये अमेरिका ने भी इरान पर अपनी आंखें तरेर ली हैं अमेरिका ने अपनी युद्धक पोतों को हरमुज स्ट­ेट के पार जाने का आदेश दे दिया इस तरह, परमाणु कायक्रम को लेकर दोनों देशों के बीच टकराव काफी आगे ब़ढ चुका है इससे पहले इरान द्वारा तेल की सप्लाइ रोक देने की भी खबर आयी थी इरान के राष्ट­पति अहमदीनेजाद ने अमेरिकी धमकी को बेवजह बताते हुए कहा कि उसमें कोइ दम नहीं है उन्होंने साफ कहा कि जरूरत पड़ी तो इरान अमेरिका को सबक भी सिखा देगा और परमाणु उपलब्धि पा लेने का मतलब यह नहीं है कि हम परमाणु बम बना रहे हैं इन सब घटनाओं के बाद कुछ वक्त के लिए तनाव शांत-सा हो गया था लेकिन, अचानक दिल्ली ऑर जॉजिया में इजरायली दूतावास के अधिकारी को निशाने बनाये जाने की घटना से मामले ने अलग रंग पकड़ लिया अभी तक जहां अमेरिका इरान को परमाणु कायक्रम को लेकर चेताता आ रहा था, वहीं इजरायल ने भी आक्रामक रुख अपना लिया और हालात इतने गंभीर हो गये कि इरान पर हमले तक की चचा होने लगी सीधे शब्दों में कहें तो इरान और अमेरिका के बीच अब सीधी मुठभेड़ का माहौल बनता जा रहा है इरान को अलग-थलग करने के लिए अमेरिका और उसके सहयोगी तरह-तरह के आथिक प्रतिबंध लगा रहे हैं यहां तक कि भारत और चीन जैसे देशों, जिनसे इरान के बेहतर संबंध हैं, उन पर अमेरिका दबाव बना रहा है कि वे इरान से संबंध तोड़ें लेकिन, इसके बावजूद इरान अमेरिका को करारा जवाब दे रहा है यहां तक कि अमेरिका को आंखें भी दिखा रहा है दरअसल, इस समय दुनिया की अथव्यवस्था तेल पर निभर है सारी दुनिया का लगभग 30 प्रतिशत तेल खाड़ी से होकर बाहर जाता है जिसे फारस की खाड़ी कहा जाता है वास्तव में खाड़ी का मुहाना यानी होरमुज इरान का ही हिस्सा है इरान चाहे तो होरमुज से निकलने वाले रास्ते को पूरी तरह से बंद कर सकता है ऐसा करने पर सिफ उसका तेल ही नहीं, बल्कि अन्य अरब देशों का तेल भी बाहर नहीं जा पायेगा ऐसी स्थिति में अमेरिका और रूस जैसे देशों पर तो कोइ खास असर नहीं पड़ेगा, लेकिन चीन, भारत, जापान और यूरोपीय राष्ट­ों की अथ-व्यवस्थाएं लगभग अपंग हो जायेंगी दूसरे शब्दों में अमेरिकी धमकी ने दुनिया के देशों का जितना दम फुलाया है, उससे कहीं ह्लयादा इरान की धमकी ने फुला दिया है



क्या है दोनों देशों की समस्याएं?



इरान की शिकायत है कि अमेरिका फिजूल ही उसके पीछे हाथ धोकर पड़ा हुआ है तीन दशक से ह्लयादा समय हो गया, लेकिन अमेरिका अभी तक आयतुल्लाह खुमैनी की इसलामी क्रांति को पचा नहीं पाया खुमैनी का यह कहना आज भी सच है कि पूंजीवादी अमेरिका शैतान-ए-बुजुग है इरानी नेताओं के मुताबिक इस बड़े शैतान को यह बदाश्त नहीं कि पश्चिम एशिया में इरान स्वतंत्र देश की तरह रहे उसे यही शिकायत सद्दाम हुसैन से थी इरान का कहना है कि उसके स्वाभिमान को ध्वस्त करने के लिए अमेरिका ने पिछले कुछ वर्षो से नया बहाना खोज निकाला है वह यह है कि इरान परमाणु हथियार बना रहा है वह परमाणु-अप्रसार संधि भंग कर रहा है वह अंतरराष्ट­ीय कानून तोड़ रहा है वह अंतरराष्ट­ीय अपराधी है रासायनिक हथियार रखने के जैसे आरोप अमेरिका ने सद्दाम पर लगाये थे, वैसे ही आरोप अब इरान पर लगाये जा रहे हैं



हालांकि, ये आरोप एक दम निराधार हो, ऐसा भी नहीं है वियना की अंतरराष्ट­ीय परमाणु ऊजा एजेंसी को शक है कि इरान परमाणु बम बनाने की तैयारी कर रहा है और बहुत ही गुपचुप तरीके से इसे अंजाम दिया जा रहा है इरान पर प्रतिबंध लगाने के कइ प्रस्ताव भी वहां पारित हो चुके हैं इरान ने परमाणु-इधन के संवधन की बात तो खुद ही स्वीकार की है सारी दुनिया यह मानती है कि इरान और इजरायल में दुश्मनी है यदि इजरायल के पास परमाणु बम है, तो इरान भी क्यों नहीं बनायेगा? ये बात दूसरी है कि इजरायल ने भारत और पाकिस्तान की तरह परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत नहीं किये थे, जबकि इरान ने किये थे



इरान मुद्दे पर बनता नया शक्ति संतुलन



इरान द्वारा परमाणु ताकत की नुमाइश से पहले ही इरान के पषा और विपषा में दुनिया भर में खेमेबाजी शुरू हो गयी है अमेरिका और उसके साथी देश इरान के खिलाफ है, जबकि चीन, रूस, उत्तर कोरिया और ब्राजील उसके साथहैं इरान के खिलाफ खड़े देशों में अमेरिका, इजरायल, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, स्पेन, तुकीत्र्, पुतगाल, नीदरलैंड, ऑस्ट­ेलिया और कनाडा हैं इन सबसे अलग भारत, जापान, दषिाण कोरिया और पाकिस्तान इस मामले में किसी भी गुट के साथ नहीं है



हालांकि, जापान ने इरानी बैंकों से लेन-देन, ऊजा षोत्र में निवेश किया हुआ है, जबकि दषिाण कोरिया ने कुछ इरानी कंपनियों पर प्रतिबंध लगाये हैं इरान के खिलाफ खड़े देशों की बात करें तो वे अपनी अथव्यवस्था, सुरषा और व्यापारिक जरूरतों के मद्देनजर अमेरिकी गंठबंधन के साथ हैं पषा में खड़े देश यानी चीन और रूस निजी तौर पर अमेरिका से दुश्मनी के कारण इरान का साथ दे रहे हैं जबकि भारत, जापान जैसे विकासशील देश अपनी निभरता की वजह से इरान से दुश्मनी नहीं लेना चाहते इस तरह देखें तो इरान और अमेरिका के बीच काफी अरसे से चला आ रहा तनाव दिन-ब-दिन ब़ढता ही जा रही है हालिया घटनाक्रम चाहे वह तेहरान के खिलाफ आथिक प्रतिबंध हो या खाड़ी से अमेरिका सैन्य पोतों को हटाने की इरान की चेतावनी, इरानी परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या इन सभी आग में घी डालने का ही काम किया है परमाणु वैज्ञानिक मोस्तफा अहमदी रोशन की हत्या का आरोप इरान ने इजरायल और अमेरिका पर लगाया है उसका कहना है कि ये दोनों देश उसके परमाणु कायक्रम को किसी भी कीमत पर खत्म करना चाहते हैं, जबकि उसका यह कायक्रम बिजली बनाने के लिए है जब-जब इरान पर बैन लगते हैं तनाव और ब़ढता जाता है



क्या है भारत, चीन और रूस की भूमिका?



इरान संकट के मसले पर भारत बेहद ही दुविधा और पसोपेशकी स्थिति में है लेकिन, एक बात साफ है यदि अपने हालिया बयान के मद्देनजर इरान तेल उत्पादन और नियात पर रोक लगाता है, तो भारत भी उसके प्रभाव से नहीं बच पायेगा अमेरिका के लिए इरान ही नहीं रूस और चीन भी बड़ी समस्या बना हुआ है इसकी वजह है कि चीन और रूस इस मसले पर इरान का साथ दे रहे हैं वहीं, अमेरिका सैन्य शक्ति दिखाने के साथ-साथ अपनी कूटनीति के जरिये भी इरान पर दबाव डालने की कोशिश कर रहा है इस संबंध में अब अमेरिका और इजरायल भारत पर इरान से संबंध तोड़ने को लेकर दबाव बनाने में जुटे हैं उसका कहना है कि वह भारत, पाकिस्तान, चीन और रूस के साथ बातचीत कर रहा है, ताकि वे इरान के तेल से परहेज करें और अंतरराष्ट­ीय, राष्ट­ीय प्रतिबंधों का महत्व समझें, जिससे इन्हें और प्रभावी बनाया जा सके



गौरतलब है कि भारत अपना लगभग 80 प्रतिशत तेल विदेशों से आयात करता है और इसमें से लगभग 12 प्रतिशत वह इरान से लेता है उधर इरान से नियात होने वाले तेल में सबसे अधिक तेल भारत को ही जाता है इस लिहाज से इरान मामले पर भारत की भूमिका आथिक तौर पर भी काफी महत्वपूण हो जाती है दूसरी तरफ, चीन और भारत के बीच हाल के दिनों में जो तनाव देखने को मिला है उसके मद्देनजर भी भारत यह कतइ नहीं चाहेगा कि वह इरान के खिलाफ खड़ा होकर चीन को राजनीतिक तौर पर इरान से लाभ लेने दे चीन की बात करें, तो अमेरिका और चीन तो अकसर एक-दूसरे की लगभग हर मामले पर आलोचना करते रहते हैं ऐसे में चीन का इरान को छोड़ अमेरिका का साथ देना इतना आसान नहीं लगता, क्योंकि जिस तरह वह उत्तर कोरिया के मुद्दे पर अमेरिका के विरुद्ध नजर आता है, मुमकिन है वही रुख इरान मसले पर भी चीन का हो कुल मिलाकर देखा जाये, तो पिछले हफ्ते इरान से संबंधित जो खबरें सुखियों में थीं, उससे ऐसा लगने लगा था कि इजरायल से उसके अघोषित युद्ध का चक्का रफ्तार पकड़ रहा है कुछ देशों में इजराइली राजनयिकों पर हमलों की कोशिश हुइ और उसके बाद यह दावा किया गया कि इसमें इरान का हाथ नजर आता है ऐसी ही पृष्ठभूमि में इरान ने यह ऐलान भी कर दिया कि उसने यूरेनियम संवधन पर महत्वपूण उपलब्धि हासिल कर ली है इस तरह यह दिखाया कि वह सारी दुनिया की चिंताओं को ताक पर रखता है उधर, रूस ने चेतावनी दी कि फारस की खाड़ी में, जहां अमेरिका और उसके सहयोगियों की फौजें जमा हो रही हैं, स्थिति विस्फोटजनक होती जा रही है, इसलिए उसने पश्चिमी देशों से तेहरान से शांतिपूण समझौते की अपील की है जानकारों की मानें तो अमेरिका और इजरायल अमेरिका राष्ट­पति चुनाव से पहले इरान पर हमला नहीं करेंगे, क्योंकि इससे ओबामा को चुनावों में नुकसान होने का खतरा है यानी दोनों मुल्कों के बीच तनाव ब़ढते रहेंगे, इरान पर प्रतिबंध और कठोर होता जायेगा, लेकिन खुली सैनिक कारवाइ की आशंका फिलहाल नहीं हैl



दुनिया को इरान की जरूरत क्यों?



किसी भी देश की आथिक तरक्की उस देशमें उद्योग धंधों पर काफी हद तक निभर होती है इन उद्योग धंधों और यातायात के संसाधनों के लिए ऊजा या बिजली की जरूरत पड़ती है आज भी विश्व के अधिकांश देश पेट­ोलियम पदार्थो और प्राकृतिक गैसों पर निभर हैं इरान दुनिया का चौथा और प्राकृतिक गैस भंडार के मामले में दूसरा सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है जहां तक इन पदार्थो के नियात की बात है, तो इरान इस मामले में सऊदी अरब और रूस के बाद तीसरे नंबर पर आता है यानी पेट­ोलियम पदार्थो, जिससे किसी देश की अथव्यवस्था जुड़ी होती है, को हासिल करने के लिए इरान अन्य देशों के लिए काफी महत्वपूण है गौरतलब है कि साल 2010 में वैश्विक तेल उत्पादन में इरान के हिस्से का योगदान 52 फीसदी था इरान से ही कइ देश कच्चे तेल और प्राकृतिक गैसों का आयात करते हैं यदि इरान इन पदार्थो का नियात रोक दे तो उन देशों की आथिक स्थिति डंवाडोल हो सकती है यही वजह है कि इरान दुनिया के अन्य देशों के लिए काफी अहम है और उन्हें इसकी जरूरत हैl



इरान के लिए अन्य देशों की जरूरत?



तेल इरान की अथव्यवस्था में महत्वपूण भूमिका निप्रभाता है पिछले दशकों में इरानी अथव्यवस्था में लगभग 72 फीसदी राजस्व की प्राप्ति तेल के नियात से ही हासिल हुइ हालांकि, पिछले कुछ वर्षो में इस षोत्र में कमी आयी है और अब इरान के सकल घरेलू उत्पाद का 40 फीसदी तेल पर निभर है इन सभी के बावजूद तेल और गैस से अब भी उसे 65 फीसदी राजस्व हासिल होता है इसका मतलब यह हुआ कि इरान के विकास की अधिकांश सरकारी योजनाएं तेल के पैसे से ही संचालित होती है यहां तक को हालात इरान के लिए सही है, लेकिन यहां खाद्य पदार्थो का उत्पादन उतना नहीं होता जिससे पूरे इरान के लोगों को भोजन मिल सके यानी खाद्य पदार्थो के आयात के लिए इरान को दुनिया के अन्य देशों पर निभर रहना पड़ता है इरान सालाना तौर पर 35 करोड़ टन मक्के का आयात करता है खाद्य पदार्थो के बाद यहां जिस अधिक चीज का आयात होता है वह है इस्पात जैसे कच्चे पदार्थो का देश में इस्पात संयंत्रों को लगाने के लिए उसे इस्पात की जरूरत है और इसके लिए भी वह अन्य देशों पर निभर हैl



भारत के लिए क्यों है महत्वपूण?



नये आथिक युग में कोइ भी देश आत्मनिभर रहने का दावा नहीं कर सकता है उसे अन्य देशों की जरूरत पड़ती ही है भारत और इरान के व्यापारिक रिश्तों के संदभ में ही बात करें, तो इरान के साथ हमारा व्यापार लगभग 1367 अरब डॉलर का इसमें भी भारत 1092 अरब डॉलर का आयात करता है, जबकि 247 अरब डॉलर का नियात इसमें कोइ शक नहीं कि आयात का अधिकांश हिस्सा तेल ही होता है साल 2015 तक कुल व्यापार 30 अरब डॉलर तक होने का अनुमान है हर साल भारत लगभग 12 अरब डॉलर का तेल आयात करता है और इरान भारत के लिए कच्चे तेलों का सबसे सस्ता नियातक देश भी है दूसरी तरफ, इरान अपनी जरूरत का लगभग 70 फीसदी चावल भारत से आयात करता है पिछली बार भारत ने 22 मिलियन टन चावल का नियात किया भारत की इस नियात का आधा आयात इरान ने किया इतना ही नहीं, इरान की भौगोलिक स्थिति हाइड­ोकाबन के स्नेत के लिहाज से भारत के लिए बेहद अहम है और वह अपनी जरूरत का दो तिहाइ उससे आयात भी करता है

इरान की पहेली में फंसा भारत

वतमान में भारत का महत्वपूण हित अरब खाड़ी से जुड़ा है जैसे-जैसे अरब और इरान के बीच तनाव ब़ढेगा, भारत का अरब में सिक्का मजबूत होगा और भारत व इरान के बीच संबंध मजबूत होंगे








वैश्विक स्तर पर इरान को अलग-थलग करने के बीच खबर है कि इरान ने नतांज के मुख्य परमाणु संवधन केंद्र में नयी पी़ढी के सेंट­ीफ्यूज का परिचालन शुरू कर दिया है अभी भारत एकमात्र शक्ति है, जो इरान के साथ खड़ा है पश्चिमी देश चाहते हैं कि भारत तेहरान के विरोध में उनका साथ दे और अपनी वैश्विक जिम्मेदारी स्वीकारे परंतु भारत का प्रतिरोध दिखाता हैकि इसकी विदेश नीति वतमान घरेलू समस्याओं से जुड़ी है इरान से आयात बंद करने पर सब्सिडी का बोझ चुनावी परिणामों को सत्तापषा के खिलाफ कर सकता है नयी दिल्ली में13 फरवरी को इजरायली राजनयिक के कार पर हुए बम हमले में तेल अवीव ने तेहरान का हाथ बताया इसके प्रप्रतिनिधियों ने ऐसा कह भारत के नीति निधारकों को मुश्किल में डाल दिया गत दिनों इरानी राष्ट­पति महमूद अहमदीनेजाद ने येलोकेक का निमाण करने, जिसे यूरेनियम संवधन में प्रयोग किया जाता है, और परमाणु तकनीक को अन्य देशों से साझा करने की इच्छा व्यक्त की थी



वास्तव में इरान के साथ भारत अपने पषा पर बहादुरी से खड़ा है भारत को इरान की प्रतिक्रियाओं से यह भय भी हैकि कहीं वह इरान और इजरायल व पश्चिमी देशों के बीच लड़ाइका मैदान न साबित हो जाये भारत इरान से संबंध मजबूत करने के लिए प्रतिबद्ध है भारत की चिंता में अफगानिस्तान को तालिबान से बचना भी है, क्योंकि अमेरिका के जाने के बाद ऐसी संभावना है कि तालिबान सिर उठा सकते हैं इरान इसे रोक सकता है भारतीय वाणिह्लय मंत्री ने हाल में कहा भी है कि भारत के गलत कदम से दोनों देशों के बीच व्यापार प्रभावित हो सकता है व्यापार प्रप्रतिनिधिमंडल का बड़ा दल नियात में वृद्धि की संभावनाओं की तलाश में माच में तेहरान जाने वाला है इसे 10 अरब डॉलर सालाना करने की योजना है



नयी दिल्ली आने वाले समय में इरान के वैश्विक अलगाव से उत्पत्र होने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए स्वयं को तैयार कर रहा है हालांकि सऊदी अरब ने भारत को आश्वश्त किया है कि वह इरान की जगह ले सकता है इसके बावजूद भारत ने इरान पर प्रतिबंध का विरोध किया है खासकर यदि तुकी मध्यवती बैंक के रूप में काम करना बंद कर देता है तो भारत के लिए इरान को क्रूड ऑयल के लिए12 अरब डॉलर की राशि चुकाना मुश्किल हो जायेगा अमेरिकी नीति निधारकों ने भारत को आगाह कर दिया हैकि इरान को मंदी के उबारने के लिए बेलआउट पैकज का विचार करना अमेरिकी प्रतिबंध की अवहेलना का मामला हो सकता है



भारत अपनी खपत का 12 फीसदी तेल इरान से आयात करता है इरान सऊदी अरब के बाद दूसरा बड़ा तेल सप्लायर है भारत के वित्त मंत्री प्रणब मुखजी ने जब कहा कि इरान से तेल आयात में कटौती करना असंभव है, तो वे विदेश और घरेलू नीति की धुरी पर प्रकाश डाल रह थे जब बजट घाटा ब़ढ रहा हो और तेल पर सब्सिडी का दौर जारी हो, वे चुनाव के दौरान जनता को नाराज नहीं करना चाहते



भारत और अमेरिका ने अपने संबंधों को 2005 में परमाणु करार का खाका तैयार करते समय नया रूप दिया इरान इस समझौते के भविष्य का लिटमस टेस्ट साबित होने जा रहा है, कि वह अमेरिकी नीति निधारकों को संतुष्ट करने में सषाम हैकि नहीं भारत को अमेरिका के प्रति वफादारी सिद्ध करने को कहा जा सकता है बुश प्रशासन ने कहा था कि यदि भारत फरवरी 2006 में इरान मुद्दे पर आइएइए में अमेरिका के प्रस्ताव का विरोध किया तो अमेरिकी कांग्रेस परमाणु समझौते को लागू नहीं करेगी भारत ने 26 अन्य देशों साथ इरान को यूएन सुरषा काउंसिल में जाने के लिए वोट दिया इसके बाद कांग्रेस के ह्लयादतर सदस्य मांग करने लगे कि समझौते के लिए यह शत भी होनी चाहिए कि भारत तेहरान से सभी सैन्य संबंध तोड़ दे लेकिन बुश प्रशासन ने यह कहते हुए विरोध किया कि भारत की ओर से समझौता रद्द हो सकता है उसी दौरान देश के वाम दल मांग करने लगे कि भारत को अमेरिका विरोधी नीति अपनानी चाहिए, क्योंकि भारत के रणनीति महत्व के लिए इरान ह्लयादा मायने रखता है



हालिया दौर का आकलन करने पर पाते हैं कि इरान के परमाणु कायक्रम के प्रश्न पर भारत की स्थिति में कोइ तब्दीली नहीं आयी है भारत कहता रहा हैकि इरान को नागरिक प्रयोग के लिए परमाणु ऊजा प्रोग्राम जारी रखने का अधिकार है साथ ही जोर देता रहा हैकि इरान को आइएइए के संदेहों को दूर करना चाहिए पश्चिम का मानना है कि इरान की परमाणु महत्वकांषा मध्यपूव को अस्थिर कर सकती है भारत के प्रधानमंत्री ने रिकॉड में यह बात कही हैकि इरान का परमाणु कायक्रम भारत के हित में नहीं है, लेकिन दिल्ली इरान की परमाणु महत्वकांषा को इरान-इजरायल के विवाद के आइने से नहीं देखना चाहता भारत की अपनी ऊजा जरूरतंे हैं वह इरान के ऊजासेक्टर में मौजूदगी दज कराना चाहता है भारत इरान में अपने प्रभाव को लेकर चिंतित है, क्योंकि वह यूएन मापकों को इरान के खिलाफ दृ़ढता से लागू कर चुका है चीन सुरषा परिषद का सदस्य होने के नाते यूएन की नीति को इरान के हित में नया रूप देने में मदद करता है चीन बिना किसी समस्या के ऊजा व्यापार को इरान में ब़ढा सकता है



वतमान में भारत का महत्वपूण हित अरब खाड़ी से जुड़ा है जैसे-जैसे अरब और इरान के बीच तनाव ब़ढेगा, भारत का अरब में सिक्का मजबूत होगा और भारत व इरान के बीच संबंध मजबूत होंगे इस दौरान दिल्ली की तेहरान में मौजूदगी की सीमा भी इरान के आंतरिक संघष, इरान व अरब के बीच तनाव और इरान के परमाणु कायक्रम द्वारा निधारित होगी दिल्ली में इजरायली दूतावास की गाड़ी में विस्फोट में तेहरान की तथाकथित भूमिका और इसके लिए भारत की धरती के इस्तेमाल से उपजी स्थितियां इरान से व्यापार कम करने के लिए दबाव ब़ढायेंगी हालांकि घरेलू राजनीति की स्थिति चुनावों और ब़ढती ऊजा जरूरतों के आधार पर नयी शक्ल लेगी अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी से पैदा शून्य को भरने का संकट मंडरा रहा है ऐसी स्थिति में दिल्ली निकट भविष्य में तेहरान को पूरी तरह दरकिनार नहीं कर सकता

मिसाल बनते लैटिन अमेरिकी देश

पिछले एक दशक के दौरान लैटिन अमेरिका में कई महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं और कई संदर्भो में यह क्षेत्र दुनिया में सार्थक बदलाव चाहने वालों लोगों के लिए प्रेरणास्त्रोत बना हुआ है। बदलाव की कोई एक तिथि तय करना तो कठिन है। फिर भी इस सदी के आरंभ से यानी वर्ष 2000 से मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि लातिन अमेरिका में ऐसे कई महत्वपूर्ण आंदोलन हुए, जो उसे पहले के विषमता भरे समय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के वर्चस्व के मॉडल से अलग राह पर ले जा सकते हैं। इससे पहले के लगभग दो दशकों का दौर यानी 1980 से 2000 का समय यहां की अर्थव्यवस्थाओं में नव-उदारवादी सोच के छा जाने का समय था जिससे आर्थिक विषमता व बाजारवाद को बढ़ावा मिला। विभिन्न देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नियंत्रण बढ़ा। संयुक्त राज्य अमेरिका की विभिन्न नीतियों व अनुचित हस्तक्षेप के विरोध में जो छोटा सा देश क्यूबा खड़ा था, उस पर संयुक्त राज्य अमेरिका ने कड़े प्रतिबंध लगा दिए थे। इससे क्यूबा को गंभीर कठिनाइयों से गुजरना पड़ा, पर क्यूबा के बारे में यह मानना पड़ेगा कि उसने इन चुनौतियों का सामना न केवल साहस से किया, बल्कि उसने रचनात्मकता भी बहुत दिखाई। खाद्य और कृषि संकट से निपटने के लिए इस तरह के तौर-तरीके अपनाए गए, जिसमें रासायनिक खाद और कीटनाशकों आदि के उपयोग से बचा जा सके। इस तरह एक ओर तो आत्मनिर्भरता को बढ़ाया गया और दूसरी ओर अधिक पौष्टिक भोजन प्राप्त करने तथा पर्यावरण को बचाने के लाभ भी हासिल किए गए। शहरी क्षेत्रों में भी उपलब्ध जमीन का उपयोग खाद्य उत्पादन के लिए हो सके व इस तरह के खाद्य संकट का समाधान हो सके इसका सफल व गंभीर प्रयास हुआ। इसके साथ ही विभिन्न देशों में अमेरिकी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बढ़ते असर से जो दुष्परिणाम लोगों को भुगतने पड़ रहे थे, उसके कारण क्यूबा के अलावा कई अन्य देशों में भी मांग उठने लगी कि वे अधिक स्वतंत्र आर्थिक नीतियां अपनाएं। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष द्वारा थोपी गई नीतियों, विश्व व्यापार संगठन के समझौतों और मुक्त व्यापार की धारणा के विरुद्ध जन आक्रोश बढ़ रहा था। लोग सवाल उठा रहे थे कि जब उनकी आर्थिक कठिनाइयां बढ़ रही हैं तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्राकृतिक संसाधनों की लूट की अनुमति क्यों मिली हुई है। वर्ष 2000 में नए दशक की शुरुआत से इस बढ़ते आक्रोश की अभिव्यक्ति जगह-जगह नजर आने लगी। बोलीविया में पानी के निजीकरण के विरुद्ध सफल संघर्ष विश्व स्तर पर चर्चित हुआ। इक्वाडोर के मूल लोगों के विरोध ने वहां बाजारवाद और निजीकरण से जुड़ी सत्ता को हिला दिया। इस बीच क्यूबा के अलावा वेनेजुएला भी अमेरिका से स्वतंत्र अर्थनीति और कूटनीति के एक केंद्र के रूप में उभरा। वेनेजुएला तेल का एक बड़ा भंडार है। लिहाजा अमेरिका की यहां कड़ी नजर रहती है। वहां ह्यूगो शावेज को राष्ट्रपति पद से हटाने के लिए तख्तापलट का एक प्रयास भी हुआ, पर जनशक्ति व जनआंदोलनों के बल पर इस प्रयास को विफल कर दिया गया। साथ ही शावेज फिर से राष्ट्रपति पद पर काबिज होने में सफल रहे। कुछ देशों में ऐसे जन आंदोलन भी देखे गए, जिन्होंने बाजारवाद व निजीकरण से जुड़ी सरकारों को अपने अनुचित निर्णय वापस लेने के लिए मजबूर किया। समय की इस मांग को पहचानते हुए कई राजनेताओं ने भी ऐसे निर्णय लेने शुरू किए, जिससे प्राकृतिक संसाधनों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नियंत्रण को ढीला किया जा सके और इनसे प्राप्त आय का बेहतर उपयोग आम लोगों के हित में किया जा सके। इस तरह के निर्णय लेकर तेल व गैस संसाधनों वाले देश विशेषकर वेनेजुएला और इक्वाडोर में जनसुविधाओं जैसे शिक्षा व स्वास्थ्य को बेहतर करने में काफी सफलता पाई गई। बोलीविया भी इसी राह पर आगे बढ़ा, लेकिन साथ ही उसने कुछ और बुनियादी मुद्दों को आगे बढ़ाया। बोलीविया ने प्रकृति के प्रति दृष्टिकोण बदलने के लिए जोर दिया ताकि प्रकृति की रक्षा के अनुकूल नीतियां बन सकें। नदियों, पर्वतों, वनों को भी रक्षा का अधिकार है व इसे संविधान में समुचित ध्यान देने की पहल बोलीविया ने की है। इसका स्वागत दुनिया के अनेक पर्यावरणविदों ने किया। इक्वाडोर ने भी इस दृष्टिकोण को आगे बढ़ाया। इक्वाडोर ने इस दृष्टि से भी अनुकरणीय उदाहरण साामने रखा कि अर्थव्यवस्था में जरूरी बदलाव कर आम लोगों के बेहतर जीवन के लिए अधिक आर्थिक संसाधन कैसे प्राप्त किए जा सकते हैं। यहां की सरकार ने विदेशी तेल कंपनियों से अनुबंध नए सिरे से तैयार किए, जिससे तेल की बिक्री से मिलने वाला सरकार का हिस्सा बहुत बढ़ गया। इस तरह शिक्षा और स्वास्थ्य सभी तक पहुंचाने के लिए धनराशि की उपलब्धता तेजी से बढ़ाई गई। इसके अलावा कॉरपोरेट सेक्टर विशेषकर बड़ी कंपनियों से उनके मुनाफे संबंधी विस्तृत जानकारी ली गई और इसके आधार पर सावधानी से प्रत्यक्ष करों व कॉरपोरेट टैक्स को इस तरह बढ़ाया गया, जिससे निवेश पर भी कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ा। इस तरह उन आलोचकों की भी हवा निकल गई, जो कह रहे थे कि ये कंपनियां टैक्स बढ़ते ही देश छोड़ देंगी। जहां एक ओर जनपक्षीय राह तलाश रही कुछ सरकारों को सफलताएं मिल रही हैं, वहीं दूसरी ओर यह डर भी बढ़ रहा है कि क्षेत्र पर अपना वर्चस्व नए सिरे से बढ़ाने के लिए अमेरिका कही कोई आक्रामक कार्रवाई न कर दे। विशेषकर वेनेजुएला के संदर्भ में यह डर कई बार व्यक्त किया गया है कि वहां के राष्ट्रपति शावेज को हटाने के लिए अमेरिका ने पहले भी प्रयास किया है और यह प्रयास दोहराए जा सकते हैं। इस स्थिति में स्वतंत्र राह अपनाने वाली सरकारों में या इस राह पर चलने की इच्छुक सरकारों में एक-दूसरे से सहयोग बढ़ाने की जरूरत महसूस की जा रही थी। इस सोच को आगे बढ़ाते हुए दिसंबर 2011 के लैटिन अमेरिका और कैरेबियन क्षेत्र के 33 देशों के राज्याध्यक्षों ने मिलकर एक नए संगठन कम्युनिटी ऑफ लैटिन अमेरिकन एंड कैरेबियन स्टेट्स की स्थापना की है। इसका पहला शिखर सम्मेलन दिसंबर के पहले सप्ताह में वेनेजुएला की राजधानी कराकस में आयोजित किया गया। अगर इन देशों का आपसी सहयोग बढ़ता गया तो जनपक्षीय नीतियां अन्य देशों में फैलने की संभावना और बढ़ेगी। इन प्रयासों का विश्व के अन्य देशों के लिए महत्वपूर्ण सबक यही है कि स्थितियां कितनी भी प्रतिकूल हों पर जनशक्ति के उभार से बड़े बदलाव लाए जा सकते हैं। यदि विभिन्न देशों के राजनीतिक दल व नेता आम लोगों की आकांक्षाओं को समय पर पहचान कर अपनी नीतियों व निर्णयों को सुधारें तो यह बदलाव और अधिक दृढ़ हो सकता है। आगे चलकर विभिन्न पड़ोसी देश आपसी सहयोग से अपनी स्थिति और मजबूत कर सकते हैं।

Tuesday, February 21, 2012

काले धन की काली अथव्यवस्था


(पिछले कुछ वर्षो से देश से बाहर जमा भारतीयों के काले धन के बारे में कइ तरह के अनुमान लगाये जाते रहे हैं सरकार पर लगातार काला धन वापस लाने और इस धन को जमा करने वालों पर कारवाइ का दबाव भी बनाया जा रहा है अब सीबीआइ निदेशक एपी सिंह ने यह कहकर कि भारत का करीब 500 अरब डॉलर काला धन विदेशों में जमा है, इस मुद्दे की गंभीरता को एक बार फिर उजागर कर दिया है काले धन के पूरे तंत्र और उससे जुड़ी चिंताओं के बीच ले जाता आज का समय)
विश्वबैंक का अनुमान है कि आपराधिक गतिविधियों और कर चोरी से करीब ड़ेढ टि­लियन डॉलर(1500 अरब डॉलर) एक देश से दूसरे देशों में पहुंचता है, जिसमें से 40 अरब डॉलर विकासशील देशों में सरकारी कमचारियों को दी गयी रिश्वत का भाग है विश्व बैंक के अनुमान के मुताबिक पिछले पंद्रह वर्षो में से सिफ 5 अरब डॉलर को वापस हासिल किया जा सका है

देश से बाहर काला धन जमा करने वालों में भारतीय अव्वल हैं अनुमान के मुताबिक करीब 500 बिलियन डॉलर (यानी करीब 245 खरब रुपये) का काला धन देश से बाहर जमा है देश में टैक्स संबंधी कानूनी खामियों का फायदा उठाकर कइ भारतीयों ने भारी मात्रा में काला धन विदेशों में जमा किया है इन देशों में मॉरीशस, स्विट्जरलैंड, लिकटेंस्टीन और ब्रिटिश वजिन आइलैंड शामिल हैं स्विस बैंकों में भी सबसे ह्लयादा धन भारतीयों का ही है यह काला धन ह्लयादातर उन देशों के बैंकों में जमा हो रहा है, जहां भ्रष्टाचार सबसे कम है ट­ांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडेक्स में न्यूजीलैंड को सबसे कम भ्रष्ट देश माना जाता है इस सूची में सिंगापुर पांचवें और स्विट्जरलैंड सातवें नंबर पर है, लेकिन ये सभी देश टैक्स हेवन(टैक्स चोरी के स्वग) हैं टैक्स हेवन उन देशों को कहा जाता है, जहां कर संबंधी लचीले कानूनों के कारण भारतीय अपना काला धन छिपाते हैं टैक्स हेवन गैरकानूनी कार्यो के खिलाफ कारवाइ नहीं करते उनकी अथव्यवस्था को इससे फायदा होता है काले धन की पहचान, जब्ती और वापस लाना कानूनी चुनौती है इसके लिए विशेषज्ञता जरूरी है चोरी किये गए सामान को वापस लाना एक विशिष्ट कानूनी प्रक्रिया की मांग करता है इसमें देर लगती है साथ ही जांच एजेंसियों को दूसरे देशों में भाषाइ दिक्कतों के साथ ही अविश्वास का भी सामना करना पड़ता है इन मामलों में कानून प्रक्रिया मुश्किल और पेचीदगी भरी होती है प्रत्येक देश को अलग-अलग न्यायिक अनुरोध भेजने पड़ते हैं इन मामलों से निपटने में जांचकताओं को सषाम बनाने के लिए खास वैश्विक प्रशिषाण कायक्रमों की जरूरत है ऐसा करके ही भ्रष्ट और आपराधिक तरीकों से कमाये पैसों की पहचान करने और उचित कानूनी कारवाइ द्वारा उसे वापस लाने की षामताओं का विस्तार हो सकता है

ऐसे में जब वैश्विक वित्तीय बाजार में धन का प्रवाह काफी जेजी से होता है, ऐसे मामलों में धन का पता लगाने में और दिक्कतें पैदा होती हैं सबसे बड़ी परेशानी अधिकार षोत्र का है अपराध कानूनों में षोत्राधिकार राजनीतिक सीमाओं में बंधा होता है इसके तहत एक देश अपने कानूनों को अपने देश की सीमाओं के पार लागू नहीं कर सकता अपराधी अपने आपको बचाने के लिए अपराध को दो या ह्लयादा देशों में फैला देते हैं और तीसरे देश में निवेश करते हैं 2जी, सीडब्ल्यूजी और मधु कोड़ा के मामलों में हमने देखा है कि काला धन पहले दुबइ, सिंगापुर या मॉरीशस गया वहां से यह स्विट्जरलैंड और कर चोरों के स्वग माने जाने वाले अन्य देशों में पहुंचा अपने काम को अंजाम देने के लिए अपराधी छद्म कंपनियां खोलते हैं और चंद घंटों में एक के बाद एक कइ खातों में धन हस्तांतरित किया जाता है, क्योंकि आज बैंकिग लेन-देन में देशों की सीमाएं कोइ बाधा नहीं है टैक्स चोरी के पनाहगार देशों ने इस मामले में राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाइ है वे उन सूचनाओं को साझा करने से हिचकिचाते रहे हैं, जिनसे ऐसी संपत्ति का पता लगाया जा सकता है इन देशों अथव्यवस्थाओं को भी शायद गरीब देशों से आने वाले काले धन की आदत हो गयी है ऐसे हालात में हमें कालेधन से निपटने के लिए लगातार और ठोस प्रयास करने होंगे हमें काला धन जमा करने को हाइ रिस्क, नो प्रॉफिट का धंधा बनाना होगा तभी काला धन के रोग को रोका जा सकता है

(भ्रष्टाचार निरोधी और संपत्ति वसूली पर पहले इंटरपोल ग्लोबल प्रोग्राम में दिये भाषण का संपादित अंश)

काले धन का आकार : अलग-अलग अनुमान

ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रिटी की रिपोट के मुताबिक 1948 से 2008 के बीच भारत का विदेशी बैंकों में कुल 20 लाख करोड़ रुपया काला धन के रूप में जमा हुआ है रिपोट के मुताबिक काला धन का प्रवाह सालाना 117 फीसदी की दर से ब़ढा है यह रकम सबसे बड़े घोटाले के रूप में चचित 2 जी स्पेक्ट­म मामले में हुए नुकसान से करीब 12 गुना अधिक है

स्विस बैंक एसोसिएशन 2008 की रिपोट के अनुसार स्विस बैंक में भारतीयों के करीब 66,000 अरब रुपये (करीब 1500 अरब डॉलर) जमा हैं रूस के 470 अरब डॉलर, ब्रिटेन के 390 अरब, यूक्रेन के 100 अरब, जबकि अन्य देशों के कुल 300 अरब डॉलर जमा हैं

कार एंड काटराइट स्मिथ की 2008 की रिपोट के मुताबिक 2002 से 06 के दौरान कालाधन के कारण भारत को सालाना 237 से 273 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पडा है

अंतरराष्ट­ीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) की रिपोट के मुताबिक 2002 से 06 के दौरान भारत को कालाधन के कारण सालाना 16 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है

भाजपा टास्कफोस : 2009 में कहा था कि काला धन 245 लाख करोड़ से 64 लाख करोड़ रुपये है

बाबा रामदेव : 400 लाख करोड़ रुपये काला धन जमा होने का दावा किया था

ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रिटी, वॉशिंगटन : भारतीयों ने 1948 से 2008 तक 25 लाख करोड़ रुपये का काला धन विदेशों में जमा किया

सरकार : पहली बार किसी सरकारी विभाग के मुखिया ने देश से बाहर काला धन का अनुमान लगाया है सीबीआइ निदेशक के मुताबिक विदेशों में जमा काला धन 500 अरब डॉलर है

2000 के दशक के शुरू में अथशास्त्री अरुण कुमार ने अनुमान लगाया कि भारत की 40 प्रतिशत संपत्ति काले धन के रूप में विदेशों में मौजूद है मौजूदा जीडीपी अनुमानों के हिसाब से यह 35 लाख करोड़ हैl
काले धन का असर - आथिक नीतियां होती हैं प्रभावित

राजकोषीय प्रणाली पर असर

कर चोरी का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह होता है कि सरकार करों से होने वाली आय के एक बड़े भाग से वंचित हो जाती है इससे अधिक आय प्राप्त करने के लिए सरकार कर दरों में वृद्धि कर देती है इससे कर प्रणाली में जटिलता आती है और साथ ही कर चोरी करने की प्रवृत्ति ब़ढती है

साधनों के वितरण पर विपरीत प्रभाव

काले धन से सरकार की करों से होने वाली आय तो प्रभावित होती ही है, साथ ही अथव्यवस्था में साधनों के आवंटन और वितरण पर भी बुरा असर पड़ता है इससे मुद्रा का अपव्यय होने लगता है कालेधन से विलासिता की वस्तुओं के उपभोग में वृद्धि होती है, जिससे वित्त का उपयोग अनुत्पादक कार्यो में होने लगता है इस प्रवृत्ति के कारण देशमें महंगाइ भी ब़ढती है

आय के वितरण पर प्रभाव

जिन लोगों के पास काले धन की मौजूदगी होती है, वे सही आय बताने से बचते हैं मौजूदा कर प्रणाली में अधिक आय पर अधिक कर देना होता है ऐसे में धनी लोग बड़ी मात्रा में कर चोरी करने में सफल होते हैं इस आय का प्रयोग गैर कानूनी कार्यो में किया जाता है जिससे और अधिक काले धन का प्रवाह होने लगता है काले धन से आय का वितरण असमान हो जाता है इसके साथ ही सरकार अपना राजस्व ब़ढाने के लिए इमानदार करदाताओं को अधिक कर का भुगतान करने के लिए विवश करती है

मौद्रिक नीति के क्रियान्वयन में कठिनाइ

काली कमाइ की उपलब्धता के कारण वित्तीय अधिकारियों को अथव्यवस्था में मुद्रा के नियंत्रण में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है अपनी मुद्रा के साख नियंत्रणके उपायों को लागू करना भी कठिन हो जाता है काला धन मुद्रास्फीति संबंधी सरकारी नीति को क्रियान्वित करने की राह में कइ बाधाएं उत्पत्र करता है

देश से बाहर संपत्ति का स्थानांतरण

राष्ट­ीय संपत्ति देश से बाहर चली जाती है इससे हमें अथव्यवस्था के विकास के लिए विदेश से कज पर निभर होना पड़ता है इस प्रकार देशका विकास धीमा हो जाता है जबकि हमारे देश के नागरिकों के पैसे से दूसरे देश अपने यहां का विकास कर पाते हैं

नहीं बन पाती हैं सही नीतियां

चूंकि काला धन देश की आथिक नीति के दायरे में नहीं आता है, इसलिए इससे अथव्यवस्था के संबंध में सही आकलन नहीं हो पाता है इससे राष्ट­ीय उपभोग, बचत, आय-व्यय के वितरण के संबंध में सही नीतियां बन नहीं पाती हैं

भारत में काला धन का आकार निरंतर ब़ढने के बाद इसे समानांतर अथव्यवस्था की संज्ञा दी जाने लगी है सावजनिक एवं निजी षोत्र में विनियोग के आंकड़ों को भी शंका की दृष्टि से देखा जाता है कुल मिलाकर काला धन आथिक नियोजकों की राह में कइ मुश्किलें पेश करता हैl
जरूरत है सख्त कानून की
पीएस बावा, चेयरमैन ट­ांसपेरेंसी इंटरनेशनल, इंडिया

काले धन से एक समानांतर अथव्यवस्था पैदा होती है इससे सरकार की मौद्रिक नीति प्रभावित होती है यह जानते हुए भी सरकार विदेशों में जमा कालेधन को वापस लाने में ढुलमुल रवैया अपना रही है, इससे सरकार की मंशा स्पष्ट हो जाती है भ्रष्टाचार और काले धन से आम लोगों का दैनिक जीवन प्रभावित हो रहा है अगर देश में व्हाइट मनी होगी, तो इससे आम लोगों और सरकार को फायदा होगा अथव्यवस्था और मजबूत होगी काले धन से पूरी अथव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ता है

काले धन से बनी समानांतर अथव्यवस्था से सामाजिक ढांचे में बड़ा बदलाव आया है आय की असमानता और गरीबी ब़ढी है विदेशी बैंको में जमा पैसे आम लोगों के नहीं बल्कि प्रभाव शाली लोगों के भ्रष्ट तरीके से कमाये पैसे हैं ये लोग समाज में अवैध रूप से पैसा कमाते हैं और इसे काले धन के रूप में विदेशी बैंकों में जमा करते हैं, ताकि इनकम टैक्स देने बचा जा सके काला धन पैदा होने में सरकार भी कसूरवार है सरकार को इन अवैध कमाइ करने वाले लोगों के बारे में जानकारी है, लेकिन सरकार कारवाइ करने से डरती है सरकार नहीं चाहती है कि उसे परेशानियों का सामना करना पड़े काला धन जमा करने वालों के नाम बाहर आने से सरकार की किरकिरी होगी आमजन में यह संदेश जायेगा कि सरकार को इन नामों के बारे जानकारी थी, लेकिन सरकार ने पहले उनके खिलाफ जानबूझकर कोइ कारवाइ नहीं की

सरकार मजबूत इच्छाशक्ति से काम ले, तो कालेधन को वापस लाने में कोइ समस्या नहीं है कइ देशों ने विदेशी बैंकों से कालाधन वापस हासिल कर लिया है अमेरिका को ही लें उसने स्विट्जरलैंड के बैंकों में अपने नागरिकों के जमा धन के बारे में जानकारी हासिल कर ऐसे लोगों के खिलाफ कारवाइ भी शुरू कर दी है अमेरिकी अदालत ने यूबीएस बैंक पर जुमाना लगाते हुए लोगों के नाम बताने को कहा है और बैंक इसके लिए तैयार भी हो गया इसलिए ऐसा कहना कि भारत सरकार इस तरह का कदम नहीं उठा सकती है, गलत है

2005 के यूएन कन्वेंशन एगेंस्ट करप्शन (यूएनसीएसी) पर विश्व के ह्लयादातर मुल्कों ने हस्ताषार कर दिया है इस कन्वेंशन के तहत कोइ भी मुल्क दूसरे मुल्क से भ्रष्टाचार के मुद्दों पर जानकारी का आदान-प्रदान कर सकता सकता है इसके लिए वह वहां के कानून की भी मदद ली जा सकती है दूसरा मुल्क इसमें पूरी तरह मदद करेगा अमेरिका भी इसी कन्वेंशन के तहत कालाधन के मसले पर कारवाइ कर रहा है

उधर, स्विट्जरलैंड की सरकार ने भी स्विस बैंक में धन जमा करने वाले लोगों के नाम की जानकारी के लिए प्रक्रिया को उदार बनाया है पहले अगर कोइ देश स्विस बैंक में जमा धन राशि के बारे में जानना चाहता था, उसे उन लोगों के नाम और पते देने होते थे उनकी पहचान भी बतानी पड़ती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है हालांकि, इस बारे में अभी पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन इससे साफ संकेत मिलते हैं कि स्विस सरकार इस मामले में लचीला रुख अख्तियार किया है वतमान कानून के तहत वह किसी भी देश की सरकार को टैक्स चोरी करने वाले व्यक्ति का नाम, पहचान और पते के आधार पर यह जानकारी देती है कि उसका कितना धन स्विस बैंकों में जमा है लेकिन इसके लिए वह अपनी शत भी रखती है कि जब तक उस व्यक्ति के खिलाफ वित्तीय अपराध का मामला दज न हो, तब तक उसके नाम को सावजनिक न किया जाये मौजूदा समय में सरकार पर काला धन के मामले को लेकर चारों ओर से दबाव है काले धन को लेकर सुप्रीम कोट में भी मामला चल रहा है और अदालत ने तल्ख टिप्पणियां भी की हैं अदालत के आदेश पर सरकार ने काले धन का पता लगाने के लिए उच्च स्तरीय कमेटी का गठन किया है कालेधन पर रोक लगाने के लिए सरकार को कड़े कानून बनाने चाहिए

विदेशी बैंक में जमा कालेधन के साथ देश के अंदर जमा काले धन को उजागर करने की जरूरत है भारतीय बैंकों में भी काले धन के रूप में कइ अरब रुपये हैं, जिसपर किसी ने दावा नहीं किया है रिजव बैंक ने भी माना है कि भारतीय बैंकों में 13 अरब से ह्लयादा ऐसे रुपये हैं, जिन पर किसी ने दावा नहीं किया और ये 10 साल पुराने हैं सरकार को इस पर भी कारवाइ करनी चाहिएl
किस-किस का है कालाधन

किस-किस का है कालाधनविभित्र रिपोर्टो से संकेत मिलता है कि विदेशी बैंकों में काला धन जमा करने वालों में भारत के धनकुबेर उद्योगपति ही नहीं, कुछबड़े राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी भी शामिल हैं

दरअसल, छोटे स्तर पर दी जाने वाली घूस की रकम तो देश में ही रह जाती है, लेकिन यही रकम जब करोड़ों में होती है तो उसे जमा करने के लिए विदेशी बैंक सुरषिात ठिकाने होते हैं

देश में बहुत से नेता और अधिकारी बड़ी योजनाओं और सौदों में करोड़ों रुपये रिश्वत लेते हैं वे कानूनी शिकंजे से बचने के लिए घूस की रकम खुद अपने हाथ में न लेकर हवाला एजेंटों के जरिये यह लेन-देन कराते हैं

हवाला के जरिये जाता है विदेश


हवाला एजेंट संबंधित नेता या अधिकारी के विदेशी बैंक खाते में पैसे जमा कराते हैं ये एजेंट लचर कानून का फायदा उठा रहे हैं

सरकार ने अंतरराष्ट­ीय कारोबार को ब़ढावा देने के लिए फॉरेन एक्सचेंज रेग्यूलेटस एक्ट(फेरा) के बदले फॉरेन एक्सचेंज मैनेजमेंट एक्ट(फेमा) बना दिया इससे हवाला कारोबारियों में कानून की सख्ती का डर कम हो गया फेरा के तहत मुद्रा की हेराफेरी करने पर जुमाना, गिरफ्तारी और आपराधिक मुकदमे का प्रावधान था, लेकिन फेमा के तहत सिफ जुमाना वसूला जाता है

हवाला कारोबारी अब इंटरनेट का प्रयोग करते हैं इससे अवैध रकम का पता लगाना जांच एजेंसियों के लिए काफी मुश्किल हो गया है

और भी हैं रास्ते


देश से बाहर पैसा भेजने हवाला के अलावा कुछ और भी रास्ते हैं हालांकि उन तरीकों में कालाधन छिपाने के लिए बिजनेसमैन के सहयोग की जरूरत पड़ती है वह अपनी छिपी हुइ कंपनियों से इसमें मदद करता है

कॉरपोरेट हाउस के पास बहुत-सी ऐसी कंपनियां भी होती हैं, जिन्हें वे सावजनिक नहीं करते कालाधन अजित करने वालों के पैसे को इन कंपनियों के सहारे भारत में फिर विदेश में निवेश कर दिया जाता है इस तरह काला धन सफेद बन जाता है

स्विस बैंक में खाता खोलने के लिए न्यूनतम जमा राशि 50 करोड़ रुपये है इतनी बड़ी रकम जमा कराने वाला आम नागरिक नहीं हो सकता हैl
उदारीकरण से ब़ढा रोग
प्रोफेसर अरुण कुमार, अथशा ी, जेएनयू

कालेधन की अथव्यवस्था देश के सामने मौजूद प्रमुख समस्याओं में से एक है हमारे देश में इस गंभीर समस्या के विषय में आजादी के बाद सबसे पहले 1955-56 में इंग्लैंड के प्रोफेसर कैल्डर ने प्रकाश डाला था उनका उस वक्त आकलन था कि भारत का काला धन देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 4-5 प्रतिशत है तब से लगातार इसमें इजाफा होता गया है 1995-96 में यह जीडीपी का 40 प्रतिशत था और कुछ अनुमानों के मुताबिक आज यह ब़ढकर तकरीबन 50 प्रतिशत हो गया है इस लिहाज से यह कहा जा सकता है कि पिछले 40-50 वर्षो में काले धन एक समानांतर अथव्यवस्था के रूप में विकसित हो चुका है हर साल देश में करीब 35 लाख करोड़ रुपये की ब्लैक इकोनॉमी तैयार होने लगी है इस राशि का करीब 10 प्रतिशत यानी करीब तीन लाख करोड़ सालाना काले धन के रूप में विदेशों में जमा होता जा रहा है जो 2005-06 में ब़ढकर करीब 2 टि­लियन डॉलर (90 लाख करोड़) तक पहुंच गया है यह काला धन 77 टैक्स हेवन (जहां करों पर बहुत रियायत है) माने जाने वाले देशों, मसलन, मॉरीशस, बहामास, स्विट्जरलैंड आदि में जमा है लेकिन काले धन का 90 फीसदी हिस्सा देश के अंदर है

दरअसल यह काली कमाइ कानूनी और गैरकानूनी दोनों गतिविधियों से पैदा हो रही है गैरकानूनी यानी कि मादक पदाथों की तस्करी, स्मगलिंग जैसे धंधों से 10 प्रतिशत ही काला धन पैदा हो रहा है कानूनी रूप से स्वीकृत व्यवसायों से करीब 40 फीसदी काला धन पैदा हो रहा है काले कमाइ की यह पूरी अथव्यवस्था राजनेताओं, व्यवसायी और कायपालिका के गठजोड़ से फल-फूल रही है इस त्रिगुट ने इसे संस्थागत कर दिया है इस प्रकार काले धन की अथव्यवस्था सिस्टम में एक उपतंत्र के रूप में विकसित हो गयी है इस उपतंत्र निकलने वाली आय का किसी भी सरकारी खाते में कोइ जिक्र नहीं है कुल मिलाकर यह काला धन संस्थागत एवं व्यवस्थित रूप ले चुका है और देश के लिए गंभीर सामाजिक-आथिक समस्या बन चुका है

1991 में आथिक उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद देश में काले धन के प्रवाह में तेजी आयी है उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू करने के साथ उम्मीद जतायी गयी थी कि परमिट-लाइसेंस कोटा राज समाप्त होने के बाद भ्रष्टाचार और कालेधन पर अंकुश लगेगा, लेकिन हुआ इसके विपरीत टैक्स ढांचा सरल होने और टैक्स की दरें कम होने के बावजूद काली कमाइ ब़ढने लगी घोटालों का भी कालाधन से सीधा संबंध होता है जिस तरह घोटालों की संख्या दिनोंदिन ब़ढती जा रही है, उसी तरह काली अथव्यवस्था का आकार भी ब़ढता जा रहा है 1980 के दशक में देश में 8 बड़े घोटाले हुए थे, जबकि 1991 से 96 के बीच 26 और 1996 से अब तक करीब 160 बड़े घोटाले सामने आ चुके हैं घोटालों की रकम में भी काफी वृद्धि हुइ है

उदारीकरण के बाद घोटालों का दौर सा शुरू हो गया घोटालों की संख्या ब़ढने के साथ-साथ इनसे होने वाला नुकसान भी काफी ब़ढ गया है आज नीतियों की असफलता की दर ब़ढी है और गवर्नेस के स्तर में गिरावट आयी है इसकी बड़ी वजह काला धन का आकार ब़ढना है कालाधन का असर इतना व्यापक हो गया है कि जिनपर व्यवस्था चलाने का दारोमदार है, वे भ्रष्ट लोगों के साथ खड़े हो गये हैं व्यवस्था ऐसी बना दी गयी है कि काम कराने के लिए पैसा देना जरूरी हो गया है इसके बावजूद सरकार काले धन के प्रति गंभीर नहीं दिखती है कारण साफ है, विदेशी बैंकों में जमा काला धन सामान्य नागरिकों का नहीं, बल्कि प्रभावशाली लोगों का है और सरकार नहीं चाहती कि उनके खिलाफ कारवाइ हो सरकार की सक्रियता के बिना कालाधन वापस लाना संभव नहीं है, क्योंकि यह दूसरे देशों से जुड़ा मसला है यदि सरकार जल्द कोइ कारगर कदम नहीं उठाती तो काले धन की समानांतर अथव्यस्था और मजबूत हो जायेगी इससे सरकार की मौद्रिक नीति प्रभावित होगी और विकास की गति शिथिल पड़ जायेगीl
कालाधन वापस आ जाये तो
   
बजट घाटा खत्म
बजट घाटा खत्मकाले धन की मात्रा चालू वित्त वष के लिए अनुमानित 8912 लाख करोड़ रुपये के जीडीपी के 27 फीसदी से भी ह्लयादा है वहीं भारत का राजकोषीय घाटा करीब 45 लाख करोड़ रुपया है यानी देश के राजकोषीय घाटे के मुकाबले विदेशी बैंकों में जमा काला धन करीब 6 गुना हैl
गरीबी हो सकती है दूर
गरीबी हो सकती है दूरदेश की गरीबी दूर की जा सकती है आज भी करीब 45 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे का जीवन बिता रहे हैं इनकी प्रतिदिन औसत आमदनी 50 रुपये से कुछ ही कम है विदेशों में जमा 245 खरब रुपये को जनसंख्या के अनुपात में बांटे तो एक आदमी को 2024793 रुपये मिलेगा
चुका देगा सारा कज
चुका देगा सारा कजइस धन के आने से विदेशों का सारा कज उतर सकता है अनुमानों के मुताबिक भारतीयों का कालाधन कुल विदेशी कज का 13 गुना है कालाधन आने पर यदि पूरे देश में कोइ कर नहीं लगाया जाये तो भी सरकार अपनी मुद्रा को अगले 30 साल तक स्थिर रख सकती है
दूर होगी बेरोजगारी
दूर होगी बेरोजगारीकालाधन वापस आने से देश के 60 करोड़ बेरोजगारों को नौकरियां मिल सकती हैं देश के किसी भी गांव से दिल्ली तक चार लेन की सड़क बनायी जा सकती है

वतमान में देश में 6 लाख गांव है इन सभी गांवों के बुनियादी ढांचे को मजबूत किया जा सकता है
सभी का होगा विकास
सभी का होगा विकासकालाधन देश में आने से 500 योजनाओं को हमेशा के लिए नि:शुल्क बिजली की आपूति हो सकती है देश के प्रत्येक नागरिक को 60 साल तक हर महीने 2000 रुपये का भत्ता मिल सकता है इसके लिएदेश को वल्ड बैंक या अंतरराष्ट­ीय मुद्रा कोष से कोइ कज लेने की जरूरत नहीं होगी
ग्रामीण षोत्र
ग्रामीण षोत्रसरकार हर वष 40 हजार 100 करोड़ रुपये अपनी महत्वाकांषी योजना मनरेगा पर खच करती है इस रकम के आने पर 50 सालों तक मनरेगा का खच निकल आयेगा किसानों को दिये गये 72 हजार करोड़ जैसे कज माफी योजना को 28 बार माफ किया जा सकता है
पांच साल कर छूट
पांच साल कर छूटभारत सरकार राजस्व प्राप्ति के लिए प्रत्यषा कर के जरिये आम लोगों से लेकर उद्योगपतियों से सालाना करीब 5 लाख करोड़ रुपये वसूल करती है जाहिर है अगर देश का पूरा काला धन वापस आ जाये तो यह पूरे पांच साल वसूले जाने वाले कुल टैक्स के बराबर होगा

ईरान पर भारत की दुविधा


ईरान पर भारत की दुविधा
(ईरान से संबंधित हाल के घटनाक्रम को भारत के लिए सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण मान रहे हैं सी. उदयभाष्कर)
पिछले एक सप्ताह के घटनाक्रम के कारण ईरान ने अपनी ओर ध्यान आकृष्ट कराया है-भारत के स्तर पर भी और वैश्विक स्तर पर भी। भारत के सामरिक गणित में ईरान की प्रासंगिकता उससे कहीं अधिक है जितनी सामान्य तौर पर नजर आती है। इस घटनाक्रम को देखना-समझना जरूरी है। 13 फरवरी को नई दिल्ली के अत्यंत सुरक्षित समझे जाने वाले केंद्रीय इलाके में इजरायली दूतावास की एक कार पर स्टिकर बम के जरिए हमला किया गया। घटनास्थल प्रधानमंत्री निवास के एकदम करीब था। इस हमले को एक आतंकी कार्रवाई के रूप में देखा जा रहा है। मोटरसाइकिल पर सवार हमलावर भाग निकलने में कामयाब रहा। जांच एजेंसियां अभी भी किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सकी हैं। उसी दिन जार्जिया की राजधानी तिब्लिसी में इजरायली संपत्ति को निशाना बनाने की कोशिश की गई और अगले दिन ऐसी ही एक कोशिश बैंकाक में हुई। इजरायल का आरोप है कि इन हमलों के पीछे ईरान समर्थित आतंकी गुट हिजबुल्ला का हाथ है। अपेक्षा के अनुसार तेहरान ने इजरायली दावे को खारिज कर दिया और उस पर यह आरोप मढ़ दिया कि ईरान को बदनाम करने के लिए इजरायल ही यह सब करवा रहा है। पूरे घटनाक्रम से ईरान के नाभिकीय कार्यक्रम पर दुनिया की बेचैनी फिर से बढ़ गई है। भारतीय मीडिया ने स्टिकर बम हमले की अपने-अपने ढंग से व्याख्या की। उदाहरण के लिए यह कहा गया कि अरब-इजरायल-ईरान तनाव भारत तक आ गया है। इसके बाद 15 फरवरी को ईरान ने अपनी नाभिकीय क्षमता और इरादों के संदर्भ में एक नाटकीय घोषणा कर डाली। जिस समय तेहरान में वैज्ञानिक रिसर्च रिएक्टर में समारोहपूर्वक फ्यूल रॉड लगा रहे थे तब ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद भी वहां उपस्थित थे। इस अवसर पर उनकी यह घोषणा पूरे विश्व में सुर्खियों में रही कि ईरान आधुनिकतम पीढ़ी की हाई स्पीड सेंट्रीफ्यूज के उत्पादन में माहिर हो चुका है। ध्यान रहे इन सेंट्रीफ्यूज का इस्तेमाल यूरेनियम संव‌र्द्धन में किया जाता है। वह यह कहना भी नहीं भूले कि अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी दुनिया द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के बावजूद ईरान ने नाभिकीय मामले में एक हद तक आत्मनिर्भरता हासिल कर ली है। एक बार फिर भारतीय मीडिया ने इस खबर को इस आशंका के साथ प्रमुखता दी थी कि ईरान ने इजरायल और अमेरिका को अपने ऊपर हमले के लिए छेड़ दिया है। यह सही है कि अमेरिका और उसके सहयोगी ईरान के नाभिकीय कार्यक्रम को लेकर बहुत सख्त मुद्रा अपनाए हुए हैं, लेकिन ईरान की इस घोषणा को वाशिंगटन ने बहुत अधिक महत्व नहीं दिया। इस पूरे घटनाक्रम के बीच इस्लामाबाद ने 16 फरवरी यानी गुरुवार को एक सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें अफगानी राष्ट्रपति हामिद करजई, अहमदीनेजाद और पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी शरीक हुए। सम्मेलन का एजेंडा था-अफगानिस्तान में स्थिरता लाने के तरीकों की खोज और ईरान से पाकिस्तान गैस पाइप लाइन का मार्ग प्रशस्त करना। स्थिति इसलिए और अधिक जटिल नजर आ रही है कि इस घटनाक्रम में नई दिल्ली को इजरायल और ईरान के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों में संतुलन को कायम करना है। भारत मौजूदा समय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थाई सदस्य है और इजरायल ने औपचारिक रूप से नई दिल्ली से संपर्क कर यह कहा है कि वह आतंकवाद को समर्थन देने के कारण ईरान के खिलाफ एक प्रस्ताव को प्रायोजित करे। स्पष्ट है कि ईरान तीन कारणों से ध्यान आकर्षित कर रहा है। आतंकवाद के कारण (जैसा कि इजरायल और अमेरिका ने आरोप लगाया है), गैर कानूनी तरीके से नाभिकीय प्रसार के कारण और तीसरा कारण है-अफगान मुद्दा। इन्हीं तीन कारणों के चलते मौजूदा घटनाक्रम पर भारत की प्रतिक्रिया और संबंधित विदेश नीति की दुविधा को केवल इजरायल अथवा ईरान को समर्थन देने की सामान्य कसौटी के आधार पर नहीं देखा जाना चाहिए। एक ओर इजरायल भारत के रक्षा उद्योग को मिलने वाले बेशकीमती समर्थन के कारण हमारी सामरिक गणित में अत्यंत महत्वपूर्ण है वहीं ईरान अपने प्रचुर तेल भंडार के कारण विशेष महत्व रखता है। ध्यान रहे, भारत अपना 12 प्रतिशत तेल ईरान से ही प्राप्त करता है। इसके अतिरिक्त ईरान का भूगोल और इतिहास भी भारत के लिए विशेष महत्व रखता है। भारत और पाकिस्तान के बीच जैसे संबंध हैं उसे देखते हुए ईरान की राजनीतिक तौर पर ही अनदेखी नहीं की जा सकती, खासकर यह देखते हुए कि मध्य एशिया और अफगानिस्तान के लिए वह संपर्क मार्ग भी उपलब्ध कराता है। नाभिकीय मुद्दे पर भारत जरूर अमेरिका की इस चिंता से सहमत है कि नाभिकीय क्षमता संपन्न्न ईरान इस क्षेत्र के हित में नहीं है, लेकिन नई दिल्ली तेहरान को नाभिकीय प्रसार संधि की बाध्यताओं से बांधने के अमेरिकी तरीके से सहमत नहीं है। आतंकवाद, विशेषकर हिजबुल्ला को मिलने वाली ईरानी समर्थन के मुद्दे पर भारत के लिए चुनाव आसान नहीं है। भारत कुछ देशों द्वारा प्रायोजित आतंकवाद से चिंतित है। 13 फरवरी को हुए हमले के संदर्भ में यह जो सामने आ रहा है कि इसमें हिजबुल्ला-ईरान का हाथ है उसकी क्या नई दिल्ली अनदेखी कर सकती है? भारत की चिंता शिया-सुन्नी टकराव को लेकर भी है। भारत के सऊदी अरब और पूरे खाड़ी क्षेत्र से नजदीकी संबंध हैं। इसके अतिरिक्त अमेरिका तेल संपन्न अरब देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध रखता है। इसके बदले में अरब देशों की भारत से कुछ अपेक्षाएं हैं। इस परिप्रेक्ष्य में सीरिया के मसले पर भारतीय मत पर अनेक अरब देशों की गहन निगाहें लगी हुई हैं। सच यह है कि ईरान भारत में एक घरेलू राजनीतिक मुद्दा बन सकता है, जैसा कि अतीत में हुआ है। (लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं

एनसीटीसी पर केंद्र और राज्यों के बीच तकरार से आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई कमजोर होती देख रहे हैं- संजय गुप्त

केंद्रीय गृह मंत्रालय की पहल पर गठित एनसीटीसी अर्थात राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र के खिलाफ राज्य सरकारों की तेज होती लामबंदी से यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या हमारे देश के नेता आतंकवाद से लड़ने के लिए वास्तव में प्रतिबद्ध हैं? आगामी एक मार्च से काम शुरू करने जा रहे एनसीटीसी को गृह मंत्रालय एक ऐसी सुरक्षा एजेंसी के रूप में देख रहा है जो प्रभावी ढंग से आतंकवाद को नियंत्रित करने का काम कर सके। एनसीटीसी का काम राज्य सरकारों और विशेष रूप से उनके आतंकवाद निरोधक दस्तों के साथ तालमेल कर आतंकी गतिविधियों पर लगाम लगाना है। इस केंद्र का गठन गैर कानूनी गतिविधि निवारक कानून के तहत किया गया है और यह कोई नया कानून नहीं है। एनसीटीसी को लेकर राज्य सरकारों की चाहे जो आपत्तियां हों, इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि आतंकवाद पर नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक समान नीतियों का निर्माण करने और उन्हें प्रभावी ढंग से लागू करने की आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति किसी ऐसी एजेंसी के जरिये ही हो सकती है जिसमें केंद्र और राज्यों, दोनों की भूमिका हो। अभी तक यह देखने में आता रहा है कि राज्यों में आतंकवाद पर नियंत्रण के तौर-तरीके अलग-अलग हैं। राज्य सरकारें पुलिस के काम में हस्तक्षेप ही नहीं करतीं, बल्कि वे अन्य राज्यों अथवा केंद्र से तालमेल में बाधक भी बनती हैं। केंद्र और राज्यों की सुरक्षा एजेंसियों में तालमेल के अभाव के न जाने कितने मामले सामने आ चुके हैं। आतंकवाद से लड़ने में राज्य सरकारों में इच्छाशक्ति की कमी और आतंकी संगठनों के मामले में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण अपनाने के मामले भी रह-रहकर सामने आते रहे हैं। यह तब है जब सभी मानते हैं कि आतंकियों का कोई जाति-मजहब नहीं होता। प्रत्येक आतंकी घटना के बाद केंद्र और राज्य के बीच आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाना अब एक सामान्य बात हो गई है। इन स्थितियों में राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक के गठन का स्वागत किया जाना चाहिए। एनसीटीसी के गठन पर राज्य सरकारों की आपत्तियों पर केंद्र का यह तर्क है कि इसका गठन करना उसका संवैधानिक अधिकार है और चूंकि इस संस्था का निर्माण पहले से बने कानून के आधार पर किया गया है इसलिए राज्यों से सलाह की जरूरत नहीं। हो सकता है कि ऐसा ही हो, लेकिन आखिर जिस काम में राज्यों का सहयोग आवश्यक है उसमें उनकी सलाह क्यों नहीं ली गई? यह ठीक नहीं कि किसी केंद्रीय संगठन या संस्था के निर्माण में राज्यों को विश्वास में लेने से बचा जाए। बावजूद इसके यह भी उचित नहीं कि अपने अधिकारों में अतिक्रमण की आशंका के आधार पर राज्य सरकारें आतंकवाद निरोधक केंद्र के खिलाफ खड़ी हो जाएं। निश्चित रूप से संघीय ढांचे की रक्षा होनी चाहिए, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि आतंकवाद राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को प्रभावित करने के साथ देश की संप्रभुता के लिए बड़ा खतरा बन गया है। यह निराशाजनक है कि जब राज्यों को आतंकवाद से लड़ने के लिए आगे आना चाहिए तब वे अपने अधिकारों के हनन का शोर मचाने में लगे हुए हैं। ऐसा लगता है कि आंतरिक सुरक्षा के सवाल पर एक बार फिर से संकीर्ण स्वार्थो की राजनीति हो रही है। ऐसी ही राजनीति पोटा के मामले में भी हुई थी और टाडा के मामले में भी। कांग्रेस ने तो टाडा को निरस्त करने को एक चुनावी मुद्दा बना लिया था। सत्ता में आने के बाद वह ऐसा करके ही मानी। इन दोनों कानूनों पर राजनीति करने का काम कांग्रेस के साथ-साथ उसके सहयोगी दलों ने भी किया था। आज यही काम गैर कांग्रेसी दल कर रहे हैं। यह एक तथ्य है कि एनसीटीसी के विरोध की कमान संभालने वाले नवीन पटनायक राज्यों के अधिकारों का सवाल उठाने के साथ-साथ तीसरे मोर्चे की संभावना भी टटोल रहे हैं। इससे इंकार नहीं कि कानून एवं व्यवस्था राज्यों का विषय है, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि विभिन्न राज्यों अथवा केंद्र एवं राज्य सरकारों के बीच समन्वय के अभाव में आतंकी एवं नक्सली संगठनों के साथ-साथ माफिया तत्व मजबूत होते जा रहे हैं। समन्वय के अभाव की एक मिसाल अभी हाल ही में तब मिली जब दिल्ली पुलिस ने आरोप लगाया कि महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते की हड़बड़ी के चलते इंडियन मुजाहिदीन का सरगना रियाज भटकल मुंबई से भागने में सफल रहा। बाद में महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते ने दिल्ली पुलिस के एक मुखबिर को गिरफ्तार कर लिया। दिल्ली पुलिस ने इसका बदला महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते के एक दल को दिल्ली में कार्रवाई करने से रोक कर लिया। दोनों के बीच तकरार इतनी बढ़ी कि मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया। समस्या केवल केंद्र और राज्यों की एजेंसियों में तालमेल में कमी की ही नहीं है, क्योंकि इजरायली दूतावास की कार पर हमले के मामले में यह देखने में आ रहा है कि दिल्ली पुलिस राष्ट्रीय जांच एजेंसी और राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के साथ मिलकर काम करने को तैयार नहीं। आंतरिक सुरक्षा के मामले में केंद्र और राज्यों की तकरार के चलते ही संघीय पुलिस सरीखे किसी तंत्र का निर्माण नहीं हो पा रहा है। राज्य सरकारें जानबूझकर यह देखने से इंकार कर रही हैं कि अनेक देशों में संघीय पुलिस प्रभावी ढंग से काम कर रही है। दरअसल अंतरराज्यीय अपराधों पर अंकुश तभी लग सकता है जब पुलिस का कोई संघीय स्वरूप सक्रिय हो। अमेरिका आतंकवाद पर लगाम लगाने में सक्षम है तो अपनी संघीय पुलिस एफबीआई के जरिये। अनेक यूरोपीय देशों में भी संघीय पुलिस सफलता से काम कर रही है। इसमें दो राय नहीं कि यदि कानून एवं व्यवस्था राज्यों का मामला है तो आंतरिक सुरक्षा की देखरेख केंद्र की जिम्मेदारी है। केंद्र को राज्यों को यह विश्वास दिलाना होगा कि वह अपनी शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करेगा। फिलहाल ऐसा होता है। यह किसी से छिपा नहीं कि सीबीआइ कई बार केंद्र सरकार की कठपुतली एजेंसी के रूप में काम करती है। केंद्रीय संगठनों के दुरुपयोग की आशंका के कारण ही राज्यों ने लोकपाल विधेयक पारित नहीं होने दिया। राज्यों को यह भय सताता रहता है कि यदि केंद्रीय संस्थाओं का अधिकार बढ़ा तो उनके अधिकारों का हनन हो सकता है। यह भय निराधार नहीं, लेकिन यह समझना कठिन है कि ऐसी ही आशंका आतंकवाद से नियंत्रण के मामले में क्यों जताई जा रही है? कम से कम आतंकवाद से लड़ने के मामले में तो राजनीति नहीं की जानी चाहिए। यदि इस काम में भी राजनीति आड़े आएगी तो आतंकवाद से लड़ना संभव नहीं होगा। आतंकवाद से लड़ने का काम सुरक्षा एजेंसियों का है और यह उन्हें ही सौंपा जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट की सजगता


( सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसलों से कानून के शासन के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ता देख रहे हैं ए सूर्यप्रकाश)
अन्ना हजारे का आंदोलन दम तोड़ रहा है और बाबा रामदेव का अभियान फिलहाल ठंडा पड़ा हुआ है, किंतु इससे घबराने की जरूरत नहीं है। दरअसल, हालिया तीन फैसलों से सुप्रीम कोर्ट ने सुनिश्चित कर दिया है कि कानून के लंबे हाथ घोटालेबाजों के गिरेबां तक पहुंच रहे हैं। इन फैसलों से कानून के शासन में नागरिकों का विश्वास बढ़ा है। ये तीन फैसले हैं-2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस रद कर नए सिरे से नीलामी, आम नागरिकों को भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ मामला दर्ज करने का अधिकार और केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का सशक्तिकरण। इन तीन फैसलों में सबसे प्रमुख है 2जी लाइसेंस आवंटन के संबंध में सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन, डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी और अन्य की याचिका पर फैसला। इस ऐतिहासिक फैसले में जस्टिस जीएस सिंघवी और अशोक कुमार गांगुली ने सरकार द्वारा आवंटित 122 लाइसेंसों को रद कर दिया है और अनेक कंपनियों पर जुर्माना भी लगाया है। फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने गैर सरकारी संगठनों और उन नागरिकों की सराहना की है, जो इस मामले को लेकर अदालत में पहुंचे। डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी बनाम मनमोहन सिंह व अन्य मामले में डॉ. स्वामी ने एक मंत्री पर मामला चलाने के अपने अधिकार पर जोर दिया। उन्होंने अदालत का ध्यान खींचा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह 2जी स्पेक्ट्रम मामले में पूर्व संचार मंत्री ए राजा के खिलाफ केस दर्ज करने की अनुमति देने संबंधी आवेदन पर कोई फैसला नहीं ले रहे हैं। अदालत के सामने मुद्दा यह था कि क्या एक नागरिक को भ्रष्टाचार निरोधक कानून 1988 के तहत जनसेवकों के खिलाफ मुकदमा चलाने का अधिकार है? और क्या सक्षम अधिसत्ता के लिए एक निश्चित समयसीमा में इस संबंध में फैसला लिया जाना आवश्यक है? जस्टिस जीएस सिंघवी और एके गांगुली की खंडपीठ ने डॉ. स्वामी के पक्ष में फैसला सुनाया। अदालत ने एटॉर्नी जनरल की इस दलील को ठुकरा दिया कि एक नागरिक जनसेवक के खिलाफ मुकदमा दर्ज नहीं कर सकता। उन्होंने कहा कि पहले भी एटॉर्नी जनरल की ऐसी ही एक दलील को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ अंतुले मामले में खारिज कर चुकी है। अदालत ने विनीत नारायण मामले में तीन सदस्यीय खंडपीठ के फैसले को उद्धृत किया। न्यायाधीशों ने कहा कि इस मामले में खंडपीठ ने व्यवस्था दी थी कि नागरिकों को अदालत में मामला दर्ज करने का अधिकार है। साथ ही सक्षम अधिसत्ता को एक निश्चित समयसीमा में फैसला लेने का आदेश दिया गया था। उस मामले में अदालत ने कहा था कि जनसेवकों के ईमानदारी से विमुख होने का कोई भी मामला विश्वासघात की श्रेणी में आता है और इससे कड़ाई से निपटा जाना चाहिए। अगर जनसेवकों का आचरण दोषपूर्ण है तो इसकी अविलंब जांच होनी चाहिए और अगर उसके खिलाफ प्रथम दृष्टतया मामला नजर आता है तो तुरंत मामला दर्ज होना चाहिए। अंतत: अदालत ने जनसेवकों पर मामला दर्ज करने के संदर्भ में सरकार को फैसला लेने की तीन माह की समयसीमा दी है। अदालत ने सरकार को इस समयसीमा का दृढ़ता से पालन करने को कहा है। हालांकि अगर किसी मामले में एटॉर्नी जनरल या किसी कानून अधिकारी से सलाह लेने की जरूरत है तो एक अतिरिक्त माह का समय और लिया जा सकता है। जजों ने कहा कि संविधान पीठ के फैसले के आलोक में डॉ. स्वामी को ए राजा के खिलाफ मामला दर्ज कराने का अधिकार है। कहानी यहीं खत्म नहीं हो जाती। यह पूरा मामला प्रधानमंत्री के आचरण और डॉ. स्वामी द्वारा लिखे गए अनेक पत्रों के संदर्भ में प्रधानमंत्री कार्यालय की प्रतिक्रिया के चारो ओर घूम रहा है। डॉ. स्वामी सुप्रीम कोर्ट इसलिए गए क्योंकि उच्च न्यायालय ने उनकी याचिका खारिज कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उच्च न्यायालय ने बिल्कुल मिथ्या अनुमान पर फैसला लिया कि इस मामले में प्रधानमंत्री ने सीबीआइ को जांच सौंपी हुई है। असल में 4 मई, 2009 को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त ने जांच की थी और रिपोर्ट की प्रति सीबीआइ के निदेशक को भेजी थी कि कहीं 2जी स्पेक्ट्रम मामले में आपराधिक साजिश तो नहीं हुई? इसके बाद सीबीआइ ने एफआइआर दर्ज की। इसके करीब एक साल बाद तक मामला ठंडे बस्ते में पड़ा रहा और सीबीआइ ने तभी जांच आगे बढ़ाई जब अदालत ने इसमें दखल दिया। अदालत ने कहा कि साक्ष्यों से पता चलता है कि प्रधानमंत्री की पहल पर सीबीआइ ने न तो केस दर्ज किया और न ही जांच शुरू की। करीब एक साल पहले डॉ. स्वामी ने प्रधानमंत्री को अभिवेदन दिया था कि सीबीआइ द्वारा एफआइआर दर्ज कराई जाए और इस पर सतत निगरानी रखी जाए। प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा प्रस्तुत शपथपत्र में कहा गया है कि एक दिसंबर, 2008 को मामला प्रधानमंत्री के समक्ष प्रस्तुत किया गया और उन्होंने संबंधित अधिकारी को तथ्यों की विवेचना और पड़ताल करने को कहा। चौंकाने वाली बात यह है कि इन निर्देशों का पालन करने के बजाय अधिकारी ने अभिवेदन को संचार मंत्रालय में भेज दिया। उस समय तक यह मंत्रालय उन्हीं ए राजा के अधीन था, जिनके खिलाफ डॉ. स्वामी ने गंभीर आरोप लगाए थे। इन अधिकारियों ने प्रधानमंत्री को आरोपों की गंभीरता और मामले को चार माह के भीतर निपटाने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बारे में नहीं बताया। जस्टिस सिंघवी से सहमति प्रकट करते हुए जस्टिस गांगुली ने कहा कि आज देश में भ्रष्टाचार ने न केवल संवैधानिक शासन के सामने खतरा पैदा कर दिया है, बल्कि इसने भारतीय लोकतंत्र और कानून के शासन को भी खतरे में डाल दिया है। इसलिए यह अदालत का कर्तव्य है कि किसी भी भ्रष्टाचार विरोधी कानून की इस तरह व्याख्या करे जिससे भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग मजबूत हो। उन्होंने फैसला दिया कि अगर सरकार चार माह के भीतर जनसेवकों के खिलाफ मामला दर्ज करने के आवेदन पर फैसला नहीं करती तो यह मान लिया जाएगा कि सरकार ने मामला दर्ज करने की अनुमति दे दी है। तीसरे और अंतिम मामले में अदालत ने 2जी घोटाले की जांच पर स्वतंत्र निगरानी की अपील ठुकरा दी। हालांकि अदालत ने व्यवस्था दी कि भविष्य में सीबीआइ द्वारा की गई जांच की रिपोर्ट केंद्रीय सतर्कता आयुक्त को भेजी जाए और केंद्रीय सतर्कता आयुक्त एक सप्ताह के भीतर जांच की विवेचना कर अपने मत व सुझाव से अदालत को अवगत कराए। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन फैसलों से जनता का मनोबल और कानून के शासन के प्रति विश्वास बढ़ा है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

अमेरिका की दुखती रग


(बिगड़ते पाक-अमेरिका संबंधों पर सेसिल विक्टर की टिप्पणी)
 पाक सेना पूर्व सैन्य तानाशाह जिया उल हक द्वारा पाकिस्तान की राजनीति में लाई गई घोर कट्टरपंथी विचारधारा के पोषक अफसरों के प्रभाव में है। जनरल जिया उल हक पाकिस्तान के असैन्य प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो द्वारा शुरू किए गए परमाणु कार्यक्रम को ले उड़े थे और इस्लामी संगठन ओआइसी में पाकिस्तान की सर्वोच्चता के प्रति समर्थन जुटाने के लिए उन्होंने इस्लामी बम की वकालत करनी शुरू कर दी थी। ऐसा नहीं कि अमेरिका को पाकिस्तान सेना की इस्लामी कट्टरता के बारे में कुछ पता नहीं था। पाकिस्तान में अरबी वहाबी कट्टरवाद की शुरुआत करने वाले सैन्य तानाशाह जिया उल हक अफ गानिस्तान में सोवियत कब्जे के खिलाफ लड़ाई के दौरान अमेरिका के पसंदीदा पिट्ठू थे, लेकिन अलकायदा, तालिबान और पाकिस्तानी समाज में जड़ें जमाने वाले दूसरे जिहादी संगठनों के पीछे पाकिस्तान सेना और उसकी आइएसआइ के मंसूबे कुछ और थे। इनका इस्तेमाल तो उत्तर में मध्य एशिया और ओआइसी के भीतर पाकिस्तानी प्रभाव को बढ़ाना था। सोवियत सेनाओं की वापसी के बाद अमेरिका ने अफ गानिस्तान को पूरी तरह उसके हवाले कर दिया था। 26 नवंबर, 2001 को अमेरिका पर अलकायदा के हमले के बाद जार्ज बुश ने परवेज मुशर्रफ से पूछा था कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में आप हमारे साथ हो या हमारे खिलाफ। तब मुशर्रफ ने अपने कोर कमांडरों से सलाह-मशविरा किया और सबने मिलकर अमेरिका का साथ देने और साथ ही आतंकवादियों की मदद करने की दोमुंही साजिश रची। जब अमेरिकी वायुसेना अलकायदा और मुजाहिदीनों के ठिकानों पर बम बरसा रही थी तब पाकिस्तान ने इन संगठनों के सरगनाओं को वहां से बच निकलने में मदद दी। इसी प्रकार अफगानिस्तान में अमेरिकी अभियान के दौरान आइएसआइ ने ओसामा बिन लादेन को तोरा बोरा गुफाओं से बच निकलने में मदद की और झूठा प्रचार किया कि तोरा बोरा में ओसामा बिन लादेन मारा गया। हालांकि ओसामा पाकिस्तान सेना की मेहमानवाजी का आनंद उठा रहा था और पाकिस्तान की एक छावनी में अपने गुर्दे का इलाज करा रहा था। अमेरिकी-पाक संबंधों के ताबूत में यह आखिरी कील थी। ऐबटाबाद में ओसामा बिन लादेन का पता चलना महीनों से चले आ रहे अविश्वास की परिणति थी। यह अविश्वास आइएसआइ की सलाह के बिना ही खुद हासिल की गई खुफिया सूचनाओं के आधार पर बड़े-बड़े आतंकवादी कमांडरों का पता लगाने और उन्हें मार गिराने के लिए अमेरिकी ड्रोनों के हमलों से प्रकट होता है। इससे पाक सेना और आइएसआइ और चिढ़ गई, क्योंकि सीआइए ने अपनी खुफिया जानकारी उसे मुहैया नहीं कराई। अरबों डॉलर की मदद के बदले छोटे-मोटे आतंकवादियों को अमेरिका के हाथ सौंप कर पाकिस्तान सेना किसी तरह अपनी साख बचाती रही। अमेरिकी पाक संबंधों में बिगाड़ तब और बढ़ गया जब वाशिंगटन ने हक्कानी कबीले के नेता सिराजुद्दीन हक्कानी को अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई के साथ बातचीत करने के लिए राजी करने पर जोर डाला। अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों के हटने की तारीख का घोषणा करने की राष्ट्रपति बराक ओबामा की गलती को देखते हुए पाकिस्तान ने वापसी तक इंतजार करने का फैसला किया ताकि वह अफगानिस्तान में अपनी पैठ फिर से बना सके। जब अमेरिकी-पाक संबंधों में दरार चौड़ी हो रही थी तभी पाकिस्तान के सैन्य प्रतिष्ठान ने अपने परमाणु जखीरे की ओर ध्यान खींचने का फैसला किया और स्पष्ट कर दिया कि परमाणु हथियारों से संपन्न पाक को हल्के में लेना एक भूल होगी। लगता है यह चेतावनी अमेरिकियों के सिर से गुजर गई और उन्होंने पाकिस्तान के परमाणु जखीरे की ओर इस संकेत के पूरे असर को नहीं समझा। अमेरिका की यह अनदेखी दुनिया को मंहगी पड़ेगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Friday, February 17, 2012

जलवायु वाता पर साझा मंच प्रदान करता ‘बेसिक

जलवायु वाता पर साझा मंच प्रदान करता ‘बेसिक’




(‘बेसिक’ चार विकासशील देशों- ब्राजील, दषिाण अफ्रीका, भारत और चीन का साझा मंच है कोपेनहेगन जलवायु वाता के दौरान चारों देशों ने साझा उद्देश्य जाहिर करते हुए तय किया था कि यदि विकसित देशों द्वारा जलवायु परिवतन पर उनके हितों की रषा नहीं की गयी, तो वे मिल कर एक मंच से अपनी बात रखेंगे हाल में ही संपत्र बेसिक देशों के पयावरण मंत्रियों की 10वीं बैठक के दौरान इस बात पर सहमति बनी कि जलवायु परिवतन से जुड़ी कोइ भी योजना बनाते समय समानता के मुद्दे (प्रिंसिपल ऑफ इक्विटी) को ध्यान में रखा जाना चाहिए ‘बेसिक’ बैठक के बहाने विकसित और विकासशील देशों के बीच पयावरण को लेकर अहसहमति के विभित्र पहलुओं की पड़ताल करता आज का नॉलेज)



क्या है क्योटो प्रोटोकॉल











यूनाइटेड नेशंस (संयुक्त राष्ट­) फ्रेमवक कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज का क्योटो प्रोटोकॉल पयावरण की चुनौती से निपटने के लिए अंतरराष्ट­ीय प्रयासों का एक हिस्सा है 1997 में कांफ्रेंस ऑफ द पाटीज (सीओपीइ) के तीसरे सत्र में अनुमोदित इस प्रोटोकॉल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सजन की सीमा तय की गयी है, जो कानूनी रूप से बाध्यकारी है यूरोपीय संघ और उसके सदस्य देशों ने मइ 2002 में इसको मंजूरी दी भारत ने भी इसी वष इस पर हस्ताषार किया विकसित देशों में करीब 150 साल पहले शुरू हुइ ग्रीनहाउस गैसों के ब़ढते उत्सजन को कम करने और फिर उसे समाप्त करने के इरादे से अस्तित्व में आये क्योटो प्रोटोकॉल का अंतिम उद्देश्य हर ऐसी मानवीय गतिविधि पर रोक लगाना है, जिससे पयावरण के लिए खतरा पैदा होता है प्रोटोकॉल के मसौदे के मुताबिक, विकसित देशों को छह ग्रीनहाउस गैसों के उत्सजन में कम से कम पांच प्रतिशत की कमी करनी होगी इस सामूहिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए स्विट्जरलैंड, मध्य और पूवी यूरोपीय राष्ट­ों व यूरोपीय संघ को 8 प्रतिशत, अमेरिका 7 प्रतिशत और कनाडा, हंगरी, जापान और पोलैंड को 6 प्रतिशत की कमी करनी होगी रूस, न्यूजीलैंड और यूक्रेन अपने मौजूदा स्तर पर कायम रहेंगे, जबकि नावे एक प्रतिशत, ऑस्ट­ेलिया 8 प्रतिशत और आइसलैंड इसमें 10 प्रतिशत तक की वृद्धि कर सकते हैं हर राष्ट­ को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सजन का यह लक्ष्य 2008-2012 के बीच हासिल करना होगा उनके प्रदशन को मापने के लिए पांच सालों का औसत निकालने का प्रावधान किया गया है तीन सबसे महत्वपूण गैसों काबन-डाइ-ऑक्साइड, मिथेन और नाइट­स ऑक्साइड के घटे स्तर को मापने के लिए 1990 को आधार वष माने जाने की व्यवस्था है



औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकलने वाली खतरनाक गैसों में तीन सबसे पुरानी गैसों-हाइड­ोफ्लोरोकाबन, फ्लोरोकाबन और सल्फर हेक्साफ्लोराइड के स्तर का आकलन 1990 या 1995 को आधार वष मानकर किया जा सकता है अपेषा के मुताबिक इन देशों को अपने काबन उत्सजन के स्तर को कम करके 1990 के स्तर पर लाना था, लेकिन वे ऐसा करने में कामयाब नहीं रहे हैं सच तो यह है कि 1990 के बाद उनके काबन उत्सजन के स्तर में इजाफा ही हुआ है अथव्यवस्था में बदलाव के दौर से गुजर रहे देशों के उत्सजन के स्तर में 1990 के बाद कमी दिखाइ दी थी, लेकिन अब यह ट­ेंड बदलता नजर आ रहा है 2010 के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रोटोकॉल के अंतगत उत्सजन के स्तर में 5 प्रतिशत की कमी सुनिश्चित करने के लिए विकसित देशों को वास्तव में करीब 20 प्रतिशत की कटौती करनी होगी क्योटो संधि के अनुसार उन सब देशों को इस संधि की पुष्टि करनी है जो धरती के वायुमंडल में 55 प्रतिशत काबनडाइऑक्साइड छोड़ते हैं उन्हें यह मात्रा 2008 से 2012 के बीच घटाकर पांच प्रतिशत तक लानी है रूस शुरू में क्योटो संधि पर हस्ताषार करने में झिझक रहा था, लेकिन अंतत: राष्ट­पति पुतिन ने रूस को क्योटो संधि से जोड़ दिया इस संधि को माच 2001 में उस समय भारी धक्का लगा था, जब अमेरिकी राष्ट­पति जॉज बुश ने घोषणा की कि वे कभी इस संधि पर हस्ताषार नहीं करेंगे अमेरिका दुनिया भर में ग्रीन हाउस समूह की गैसों के एक चौथाइ हिस्से के लिए जिम्मेदार है 191 देशों ने इस प्रोटोकोल की पुष्टि की है इसे 11 दिसंबर 1997 में जापान के क्योटो में ग्रहण किया गया और 16 फरवरी 2005 में अमल किया गया दिसंबर 2011 में कनाडा भी इस संधि से बाहर हो गया‘बेसिक’ चार विकासशील देशों- ब्राजील, दषिाण अफ्रीका, भारत और चीन का साझा मंच है कोपेनहेगन जलवायु वाता के दौरान चारों देशों ने साझा उद्देश्य जाहिर करते हुए तय किया था कि यदि विकसित देशों द्वारा जलवायु परिवतन पर उनके हितों की रषा नहीं की गयी, तो वे मिल कर एक मंच से अपनी बात रखेंगे हाल में ही संपत्र बेसिक देशों के पयावरण मंत्रियों की 10वीं बैठक के दौरान इस बात पर सहमति बनी कि जलवायु परिवतन से जुड़ी कोइ भी योजना बनाते समय समानता के मुद्दे (प्रिंसिपल ऑफ इक्विटी) को ध्यान में रखा जाना चाहिए l

काबन उत्सजन में कौन कहां



प्रति वष उत्सजन प्रति वग किलोमीटर प्रति व्यक्ति मात्रा प्रतिशत में



(मीटि­क टन में) की दर से उत्सजन की दर से उत्सजन







चीन 8,240,958 8,548 62 23



यूएसए 5,492,170 5,589 176 1811



भारत 2,069,738 6,296 17 578



रूस 1,688,688 989 118 567



जापान 1,138,432 30,122 89 401



जमनी 762,543 21,358 93 261



इरान 574,667 3,487 76 179



दषिाण कोरिया 563,126 56,195 115 169



कनाडा 518,475 519 149 180



यूके 493,158 20,244 79 173



यूरोपीय यूनियन 4177817 ---- -- 1404



(27 देश)



(दुनिया के कुछ बड़े देशों द्वारा प्रतिवष काबन उत्सजन की मात्रा, आंकड़े का स्नेत संयुक्त राष्ट­ की यूएएस डिपाटमेंट ऑफ इंजीनियरिंग 2010 इसमें केवल जीवाश्म ईंधन से उत्सजित काबन की मात्रा दी गयी है दस बड़े देश कुल 67 07 फीसदी काबन उत्सजन करते हैं)ं



हाल में ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि विकास ऐसा हो जिससे पयावरण पर कोइ बुरा प्रभाव न पड़े आथिक प्रगति लोगों के लिए जरूरी है, लेकिन हम ऐसी प्रगति की इजाजत नहीं दे सकते, जो हमारे पयावरण को नुकसान पहुंचाती हो प्रधानमंत्री ने यह बात बेसिक देशों (ब्राजील, दषिाण अफ्रीका, भारत और चीन) के पयावरण मंत्रियों की 10वीं बैठक के दौरान कही उन्होंने कहा कि जलवायु परिवतन से जुड़ी कोइ भी योजना बनाते समय समानता के मुद्दे (प्रिंसिपल ऑफ इक्विटी) को ध्यान में रखा जाना चाहिए समानता का मसला यानी कि हर देश द्वारा वायुमंडल में छोड़े जाने वाले काबन-डाइ-ऑक्साइड की मात्रा के आधार पर उस देश के उत्सजन लक्ष्य तय करना है गरीब और विकासशील देशों ने पिछले साल डरबन में भारत के समानता के सिद्धांत का समथन किया था साथ ही बेसिक देशों की डरबन में सकारात्मक भूमिका सामने आया संयुक्त राष्ट­ द्वारा प्रायोजित जलवायु वाता इस वष 18 दिसंबर को कतर में आयोजित की जायेगी उससे पहले बेसिक देशों के पयावरण मंत्री का यह 10वीं बैठक अहम है



बेसिक मंच की जरूरत



बेसिक चार विकासशील देशों ब्राजील, दषिाण अफ्रीका, भारत और चीन का साझा मंच है इसका गठन 28 नवंबर 2009 को एक समझौते के तहत हुआ कोपेनहेगन जलवायु वाता के दौरान चारों देशों ने साझा उद्देश्य जारी करते हुए तय किया कि यदि विकसित देशों द्वारा जलवायु परिवतन पर उनकी हितों की रषा नहीं की गयी, तो वे मिलकर एक मंच से अपनी बात रखेंगे बेसिक मंच चीन के प्रयास का नतीजा है इसके अध्यषा चीन के जी झेनहुआ हैं बेसिक मंच को कोपेनहेगन समझौते का नतीजा माना जाता है यह समूह काबन उत्सजन कटौती और इससे होने वाले नुकसान के लिए विकासशील देशों को मदद देने की योजना पर काम करता है जनवरी 2010 में समूह ने यह कह सबको चौंका दिया कि कोपेनहेगन समझौता राजनीति से प्रेरित है, क्योंकि यह कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है कोपेनहेगन समझौते के सामने आने के बाद बेसिक देशों की ओर से जारी बयान में कहा गया कि 2011 में होने वाली डरबन वातातक संयुक्त राष्ट­ जलवायु परिवतन फ्रेमवक कन्वेंशन को कानून का दजा मिले और क्योटो प्रोटोकॉल को जारी रखने पर सहमति बनायी जाये साथ ही भारत ने समानता के सिद्धांत की बात भी रखी अमेरिका आदि विकसित देशों की मनमानी खत्म करने की भी मांग हुइ विकसित देशों से मांग की गयी कि काबन कटौती से विकासशील देशों हुइ षाति की भरपाइ और न्यायसंगत विकास करने में मदद देने के लिए कोष बने उन्हें वित्त, तकनीकी उपलब्ध करायें और षामता का विकास करने में योगदान दें लेकिन पिछले साल दिसंबर में डरबन में संयुक्त राष्ट­ जलवायु परिवतन सम्मेलन में देशों के बीच क्योटो प्रोटोकाल के विस्तार को लेकर सहमति नहीं बन पायी



विभित्र देशों में मतभेद



काबन उत्सजन में कटौती के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी क्योटो प्रोटोकाल की समय सीमा इस साल समाप्त हो रही है बेसिक देश जहां क्योटो प्रोटोकाल की समय सीमा ब़ढाए जाने पर जोर दे रहे हैं, वहीं अमेरिका और यूरोप आदि देश इसका विरोध कर रहे हैं बेसिक देशों का कहना है कि क्योटो प्रोटोकाल के लिए एक दूसरी प्रतिबद्धता अवधि आवश्यक है यदि वास्तव में जलवायु परिवतन से निपटना चाहते हैं, तो क्योटो प्रोटोकाल आगे अवश्य जारी रहना चाहिए संयुक्त राष्ट­ पयावरण कायक्रम (यूएनइपी) काबन उत्सजन में कटौती के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी और स्वैच्छिक उपाय दोनों की महत्ता स्वीकारने की वकालत करता रहा है उसका मानना है कि काबन उत्सजन को कम करने के लिए कुछ देशों के स्वैच्छिक उपाय और कानूनी बाध्यता दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और इन्हें एक-दूसरे से प्रतिस्पधा नहीं करनी चाहिए दोनों उपाय महत्वपूण हैं आज दुनिया पूरी तरह से स्वैच्छिक उपायों पर निभर नहीं रह सकती, लेकिन ये उपाय आवश्यक हैं, क्योंकि ये उपाय जलवायु परिवतन के प्रतिकूल प्रभाव से निपटने के लिए षोत्रीय स्तर पर देशों की प्रतिबद्धता दशाते हैं जलवायु परिवतन के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट­ कहता रहा हैकि यही समय है जब हम जलवायु को बचाने के लिए कोइ कारगर कदम उठा सकते हैं अन्यथा बहुत देर हो जायेगी अभी तक क्योटो प्रोटोकाल में धनी देशों पर उत्सजन में कटौती करने की कानूनी बाध्यता है, जबकि विकासशील देशों पर यह स्वैच्छिक है



गतिरोध की वजह



विकासशील देश औद्योगिकीकरण के अपने अधिकार पर जोर देते हुए कटौती का विरोध कर रहे हैं यह गतिरोध का प्रमुख बिंदु है भारत कहता रहा है कि वह विकासशील देशों पर कानूनी रूप से बाध्य किसी भी कटौती का विरोध करेगा चारों देश इस मुद्दे पर एक हैं कि दुनिया के लिए काबन उत्सजन में कटौती के मानक ‘समान’ नहीं, बल्कि ‘समतापूण’ होने चाहिए यानी इतिहास में कुल मिलाकर सबसे ह्लयादा प्रदूषण फैलाने वाले देश अपने उत्सजन में सबसे ह्लयादा और सबसे तेज कटौती करें, जबकि विकास के निचले पायदान पर चल रहे देश धीरे-धीरे इस रास्ते पर आगे ब़ढें और विकसित देशों की ओर से उन्हें इस काम में सस्ते दर पर या मुफ्त तकनीकी मदद भी मुहैया करायी जाये विभित्र देशों की षामता और ऐतिहासिक भूमिका के मुताबिक इस काम में उनकी हिस्सेदारी तय होनी चाहिए भारत, चीन और दषिाण अफ्रीका के पास गैस, तेल और परमाणु संसाधनों की तुलना में कोयला कहीं ह्लयादा है और अपनी बिजली की जरूरतें पूरी करने के लिए कोयला आधारित बिजलीघरों पर निभर रहना उनकी मजबूरी है इसी तरह ब्राजील अपने यहां गóो की बड़ी उपज का इस्तेमाल मिथेनॉल आधारित गा़िडयां चलाने में करता है जाहिर है, उत्सजन में कटौती के नाम पर अगर कोयले और बायोफ्यूल के इस्तेमाल पर ग्लोबल कानूनी रोक लगायी जाती है, तो आथिक पिछड़ापन ही बेसिक देशों की नियति बन जायेगी लेकिन इस चिंता को सबसे ऊपर रखते हुए भी हम ग्लोबल वार्मिग से जुड़ी कहीं ह्लयादा बड़ी चिंताओं की अनदेखी नहीं कर सकते विकास के नाम पर विकासशील देशों में जिस तरह जंगल काटे जा रहे हैं और नदियां नाले में तब्दील हो रही हैं, वह अब इन समाजों के लिए आत्मघाती साबित होने लगा है



आय के वितरण और काबन उत्सजन संबंधी आंकड़ों का विश्लेषण करने पर यह बात सामने आती है कि भारत की सबसे अमीर 10 फीसदी आबादी का प्रति व्यक्ति काबन उत्सजन अमेरिका के सबसे गरीब 10 फीसदी लोगों द्वारा किए जाने वाले उत्सजन के बराबर या उससे कुछ कम ही था अगर अमेरिका के सबसे अमीर लोगों से तुलना की जाये, तो यह उनके द्वारा किए गये उत्सजन का 10 वां हिस्सा भी नहीं था दूसरे शब्दों में कहा जाये, तो भारत के अमीरों ने अमेरिका के गरीबों से भी कम काबन उत्सजन किया है



वष 2009 में कोपेनहेगन सम्मेलन में देशों को दो नयी Ÿोणियों में बांट दिया गया पहला, ऐसे संवेदनशील देश जिनको जलवायु परिवतन अपनाने के लिए तुरंत धन मुहैया कराया जाना था और दूसरे वे देश जिनको उभरते हुए प्रदूषक का दजा दिया गया- इसमें भारत, चीन, ब्राजील और दषिाण अफ्रीका शामिल थे इस सम्मेलन कहा गया कि भारत जैसे देश समानता के आधार पर उस धनराशि की राह रोक रहे हैं, जो बांग्लादेश और मालदीव जैसे देशों के खाते में जानी है इस तरह सम्मेलन में गरीब देश गरीबों से ही भिड़ गये तब से लेकर अब तक यह मतभेद जारी है इस तरह देखें तो इस तरह के गतिरोध दूर करने में यह मंच काफी उपयोगी साबित हो सकता है पिछले कुछ वर्षो के दौरान अमीर देशों के उत्सजन में लगातार इजाफा हुआ है, लेकिन उसके बारे में बात करने वाला कोइ है ही नहीं अब समय आ गया है कि हम इन बचकानी लड़ाइयों को खत्म करें यह तय करना होगा कि दुनिया भर में काबन उत्सजन में तेज गति से और बड़े पैमाने पर कटौती की जाये

नाजुक फैसले की घड़ी - ईरान पर प्रतिबंधों के संदर्भ में भारत

नाजुक फैसले की घड़ी


(ईरान पर प्रतिबंधों के संदर्भ में भारत को अपने हितों की रक्षा करने की नसीहत दे रहे हैं -ब्रह्मा चेलानी)



विश्व की बड़ी शक्तियों की भूराजनीति ने भारत की कूटनीतिक दुविधा को बढ़ा दिया है। उन्होंने अरब विद्रोह के माध्यम से अनेक तेल समृद्ध देशों को अपने वश में कर लिया है और दो पश्चिम विरोधी शक्तियों-ईरान व सीरिया पर दबाव बढ़ा दिया है। ईरान और अमेरिका मनोवैज्ञानिक युद्ध में उलझे हुए हैं। अमेरिकी रक्षामंत्री लिओन पैनेटा की इजरायल द्वारा ईरान पर हमले की चेतावनी के जवाब में तेहरान ने धमकी दी है कि ऐसा होने पर वह विश्व के सबसे महत्वपूर्ण तेल मार्ग को बंद कर देगा। इन धमकियों में निहित खतरा सैन्य टकराव में बदल सकता है। यह ईरान के खिलाफ अमेरिका के अप्रत्यक्ष युद्ध की घोषणा से रेखांकित हो जाता है। अमेरिका ने ईरान की आर्थिक रीढ़ तोड़ने के लिए उस पर तेल व्यापार संबंधी प्रतिबंध लगाए हैं। यह देखते हुए कि ईरान की विदेशी मुद्रा का 80 फीसदी तेल के निर्यात पर निर्भर करता है, तेल निर्यात पर प्रतिबंध और ईरान के सेंट्रल बैंक की संपत्तियों को जब्त करने की कार्रवाई से ईरान-अमेरिका सैन्य टकराव की आशंका बढ़ जाती है। विडंबना यह है कि ये प्रतिबंध इसी टकराव को रोकने के लिए लागू किए गए हैं। इतिहास गवाह है कि तेल प्रतिबंध और सैन्य टकराव में सीधा संबंध है। अमेरिका को हिला देने वाले 1941 के पर्ल हार्बर हमले का एक कारण यह भी था कि अमेरिका, ब्रिटेन और हालैंड की तिकड़ी ने 1939 में जापान पर तेल व्यापार प्रतिबंध लगा दिए थे, जिसके कारण जापान की हालत पतली हो गई थी। इस पृष्ठभूमि में भारत के भी इस भूराजनीतिक जंग में फंस जाने या फिर इस अप्रत्यक्ष लड़ाई का खामियाजा भुगतने का खतरा बढ़ता जा रहा है। इजरायल के त्वरित आरोप कि दिल्ली कार बम विस्फोट के पीछे ईरान का हाथ है, को इस खतरे की आहट माना जा सकता है। एक अहम सवाल कोई नहीं उठा रहा है कि जब विश्व भारत पर ईरान से तेल न खरीदने का दबाव बढ़ा रहा है, तो ऐसे में ईरान भारत की भूमि पर आतंकी हमला क्योंकर करेगा। यह संभवत: सबसे खराब समय होगा जब ईरान अपनी आखिरी आर्थिक जीवनरेखा-भारत के साथ संबंध तोड़ने के बारे में सोचेगा, जबकि आज से पहले कभी ईरानी आतंकवाद की कोई घटना भारत में नहीं हुई है। सवाल यह भी है कि इजरायली खुफिया एजेंसी द्वारा ईरान के अंदर ही ईरानी परमाणु वैज्ञानिकों की कथित हत्याएं करने के बाद ईरान महज एक इजरायली दूत की पत्नी पर हमला क्यों करना चाहेगा? दिल्ली कार विस्फोट को सिर्फ एक बचकानी हरकत कहा जा सकता है? अगर ईरान इन विस्फोटों के पीछे होता तो यह हमला इतना हलका और लापरवाही भरा नहीं होते। कुल मिलाकर इस घटना से भारत पर ईरान के साथ ऊर्जा संबंध तोड़ने का दबाव बढ़ा है। यह दुखद है कि अल्पकालिक लाभ के लोभ में अमेरिका फारस की खाड़ी में दीर्घकालिक समस्याएं पैदा कर रहा है। अरब जगत में लोकतांत्रिक पारगमन को प्रोत्साहन देकर दीर्घकालीन लाभ उठाने के बजाय अमेरिका सामंती शासन वाले तेल शेखों के साथ संबंध प्रगाढ़ कर रहा है। इनमें सऊद घराना और कतर के शाही घराने शामिल हैं। इसके अलावा उसने बहरीन में लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के क्रूर दमन को लेकर भी अपनी आंखें मूंदे रखीं। इससे आंशिक रूप से व्याख्या होती है कि अरब विद्रोह के बावजूद तेल शेखशाही के एकछत्र राज में कोई बदलाव नहीं आया। ईरान के खिलाफ अमेरिका के ऊर्जा व्यापार प्रतिबंधों के कारण तेल की बढ़ती कीमतों से इन शेखों का खजाना और बड़ा होता जा रहा है। पिछली आधी शताब्दी के अनुभव से पता चलता है कि शेखों को तेल से जितनी अधिक कमाई होती है, उतना ही अधिक ये कट्टरता और उग्रवाद को बढ़ावा देते हैं। वास्तव में, ये जितनी संपदा अर्जित करते हैं, इस क्षेत्र में स्वतंत्रता का उतना ही अधिक मोल बढ़ जाता है। इस आलोक में, अमेरिका द्वारा ईरान प्रतिबंध कानूनों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी करने के प्रयास से भारत के लिए दोहरी मुसीबत खड़ी हो गई है। पहली मुसीबत यह कि भारत की ऊर्जा आयात विविधिकरण नीति को झटका लगने का नतीजा यह होगा कि भारत की इस्लामिक कट्टरता को बढ़ावा देने वाले शेखों पर निर्भरता बढ़ जाएगी। पिछले कुछ सालों से भारत के कुल कच्चे तेल निर्यात में ईरान की हिस्सेदारी घट कर 11 फीसदी रह गई है। इस हिस्सेदारी के और गिरने से भारत के तेल शोधक कारखानों के सामने नया संकट आ जाएगा। दरअसल, कच्चे तेल के मूल तत्वों-गुरुता और सल्फर की मात्रा की दृष्टि से तेल शोधक कारखाने तैयार किए जाते हैं। ईरान से आयातित तेल घटने से तेलशोधक कारखानों में बड़े पैमाने पर परिवर्तन करने होंगे, जो काफी महंगा पड़ेगा। दूसरे, अमेरिका अफगानिस्तान से वापसी की हड़बड़ाहट में है और इसके लिए भारतीय हितों की अनदेखी कर तालिबान के साथ समझौता करना चाहता है। ऐसे में अमेरिकी प्रतिबंधों के घोड़े पर सवार होने से भारत एक ऐसे देश के साथ अपने संबंध खराब कर लेगा जो अफगानिस्तान संकट के आड़े दिनों में भारत के काम आ सकता है। अमेरिका की अफगानिस्तान से विदाई के बाद भारत के लिए ईरान की भूराजनीतिक भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाएगी। यह नहीं भूलना चाहिए कि ईरान-अमेरिका में लंबे समय से जारी छद्म युद्ध में अनेक मुद्दों पर अमेरिका का साथ देकर भारत पहले ही भारी नुकसान झेल चुका है। इसके बावजूद अमेरिका भारत-चीन और भारत-पाक मामलों में भारत का साथ नहीं देता। बुश प्रशासन ने भारत पर दबाव डालकर ईरान के साथ दीर्घकालीन तेल समझौते नहीं करने दिए और न ही ईरान-भारत गैस पाइपलाइन को सिरे चढ़ने दिया। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में 2005 और 2006 में ईरान के खिलाफ मतदान करके भारत ने ईरान के साथ 22 अरब डॉलर की तरल प्राकृतिक गैस संधि रद करवा डाली, जिसकी शर्ते भारत के हित के अनुकूल थीं। आज, जो देश ईरान के खिलाफ तेल व्यापार प्रतिबंध लागू करना चाहते हैं, वे ईरान से या तो तेल खरीदते ही नहीं हैं या फिर नामचारे का तेल खरीदते हैं। दूसरी तरफ, जिन देशों जैसे भारत, चीन, दक्षिण कोरिया और जापान आदि पर ईरान के खिलाफ प्रतिबंधों के लिए दबाव डाला जा रहा है, वे ईरानी तेल के महत्वपूर्ण आयातक हैं। भरोसेमंद विकल्प सुझाए बिना ही अमेरिका ईरान से तेल के आयात को लेकर भारत पर गैरजरूरी दबाव डाल रहा है। ईरान का मामला भारत के लिए कूटनीतिक परीक्षण बन गया है। अब देखना है कि भारत अपनी ऊर्जा और भूराजनीतिक हितों की सुरक्षा के उपाय करता है या फिर अमेरिका और इजरायल के अल्पकालिक हितों के लिए अपने हितों की बलि चढ़ा देता है। (लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)

मिसाइलरोधी रक्षा प्रणाली

भारत की मिसाइल ताकत के मामले में 10 फरवरी का दिन ऐतिहासिक रहा। इस दिन भारतीय वैज्ञानिकों ने मिसाइलरोधी सुरक्षा प्रणाली को और अधिक सक्षम बनाते हुए इसका शानदार सफल परीक्षण किया। इस परीक्षण को ओडिशा के समुद्र तट पर दो स्थानों से संचालित किया गया। एकीकृत परीक्षण केंद्र के निदेशक एसपी दास के मुताबिक परीक्षण के दौरान दुश्मन मिसाइल के रूप में पृथ्वी मिसाइल का इस्तेमाल करते हुए इसे तीन मिनट पहले प्रक्षेपण स्थल से एक मोबाइल लांचर से दागा गया। इसके तीन मिनट बाद चांदीपुर से लगभग 70 किलोमीटर दूर व्हीलर द्वीप पर तैनात इंटरसेप्टर एडवांस एयर डिफेंस यानी एएडी मिसाइल को समुद्रतट के किनारे पर लगे राडारों से संकेत मिले और इसने पृथ्वी को ध्वस्त करने के लिए उड़ान भरी। इस इंटरसेप्टर मिसाइल ने समुद्र से तकरीबन 15 किलोमीटर की ऊंचाई पर पृथ्वी मिसाइल का रास्ता रोका और चंद सेकेंडों में उसे ध्वस्त कर दिया। शत्रु की किसी भी हमलावर मिसाइल को जमीन पर गिरने से पहले उड़ान के दौरान आसमान में ही नष्ट कर देने वाली मिसाइल को इंटरसेप्टर कहा जाता है। दुश्मन की आक्रामक मिसाइलों के खतरे से निपटने के लिए अभेद्य कवच विकसित करने के प्रयास वर्ष 1999 में प्रारंभ कर दिए गए थे। इस कवायद का परिणाम सन 2006 में तब सामने आया जब 27 नवंबर को इसका प्रथम सफल परीक्षण किया गया। बाद में 6 दिसंबर 2007 एवं 6 मार्च 2009 को इसके सफल परीक्षण हुए। इंटरसेप्टर मिसाइल के संशोधित स्वरूप का अगला परीक्षण 14 मार्च 2010 को व्हीलर द्वीप से किया जाना था, लेकिन मिसाइल की उप प्रणाली में आई तकनीकी खामियों के कारण इसे टाल दिया गया। फिर 15 मार्च 2010 को परीक्षण के समय पृथ्वी मिसाइल अपने पूर्व निर्धारित पथ से भटक गई जिस वजह से वैज्ञानिकों को अंतिम समय में परीक्षण टालना पड़ा। इसके बाद 26 जुलाई 2010 एवं 6 मार्च 2011 को इसके पांचवे व छठे परीक्षण सफल रहे थे। इस सुरक्षा प्रणाली सिस्टम से शत्रु की तरफ से आ रही मिसाइल को पहले राडार या अन्य उपकरण पकड़ते हैं और बाद में इसके संकेत सिस्टम इंटरसेप्टर को जानकारी देता है इंटरसेप्टर तेज गति से आगे बढ़कर शत्रु की मिसाइल को बीच रास्ते में ही ध्वस्त कर देती है। वैज्ञानिकों के अनुसार इन परीक्षणों के परिणामों और इंटरसेप्टर मिसाइल के घातक प्रभावों का विश्लेषण किया जा रहा है। लगभग 7.5 मीटर लंबी इंटरसेप्टर एक चरणीय ठोस रॉकेट प्रोपेल्ड निर्देशित मिसाइल है। इसमें उन्नत किस्म की इंटीरियल नैवीगेशन प्रणाली लगी है जो इसे सही दिशा देने और जरूरत के हिसाब से उसमें बदलाव करने में सक्षम है। यही प्रणाली इसकी मारक क्षमता को अचूक बनाती है। यह मिसाइल आधुनिक दिशा सूचक प्रणाली से भी सुसज्जित है। इस इंटरसेप्टर मिसाइल में राडार व हमलावर मिसाइल का पता लगाने के लिए अपना डाटा लिंक, आंतरिक संचालन प्रणाली तथा सिक्योर डाटा लिंक होता है। इंटरसेप्टर मिसाइल शत्रु द्वारा दागी गई किसी भी विध्वसंक मिसाइल की गति, दिशा व समय आदि की गणना करके उसे अति शीघ्र हवा में नष्ट करने की क्षमता रखती है। इसके इंफ्रारेड सेंसर व संवेदनशील कैमरे आसमान की गतिविधियों की सूचना शीघ्र देते हैं। इससे उसे निशाने में लेना आसान हो जाता है। चूंकि इसे मोबाइल लांचर से भी छोड़ा जा सकता है इसलिए युद्धकाल में इसकी क्षमता और भी बढ़ जाती है। इस मिसाइल को द्विस्तरीय बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा प्रणाली की योजना के तहत विकसित किया गया है। यह पूर्ण रूप से स्वदेश निर्मित सुपरसोनिक मिसाइल है। 50 किलोमीटर की ऊंचाई तक शत्रु की मिसाइल को मार गिराने वाली इंटरसेप्टर मिसाइल को अंत: वायु मंडलीय मिसाइल भी कहा जाता है। यह मिसाइल एडवांस एयर डिफेंस होती है। अभी तक यह तकनीक अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, इटली, ब्रिटेन व इजरायल के पास ही है। अब इस सूची में भारत जुड़ गया है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) एएडी मिसाइल के सफल परीक्षण पर डॉ. लक्ष्मीशंकर यादव की टिप्पणी मिसाइलरोधी रक्षा प्रणाली

Thursday, February 16, 2012

नगद अनुदान है सही विकल्प

- डॉ भरत झुनझुनवाला


सुझाव है कि प्रस्तावित 125 हजार करोड़ रुपये की रकम को प्रत्येक नागरिक में 1,000 रुपये प्रति वष के हिसाब से वितरित कर दिया जाये इस रकम से बाजार भाव पर हर व्यक्ति अनाज खरीद सकेगा

पिछले 60 साल में सरकार ने जनहित के नाम पर एक विशाल कल्याणकारी नौकरशाही को खड़ा कर दिया है ये सरकारी कमचारी जन कल्याण के नाम पर सरकारी राजस्व को हजम कर रहे हैं इस पॉलिसी का एक और उदाहरण खाद्य सुरषा कानून है, जिसे कैबिनेट ने हाल में मंजूरी दी है प्रस्ताव है कि करीब 75 प्रतिशत ग्रामीण और 50 प्रतिशत शहरवासियों को 7 किलो खाद्यात्र प्रति माह 3 रुपये प्रतिकिलो या कम पर मुहैया कराया जायेगा इस कानून के मूल मंत्र का स्वागत किया जाना चाहिए इस कानून का विरोध यह कहकर किया जा रहा है कि इससे सरकार की वित्तीय स्थिति पर असहनीय बोझ पड़ेगा वतमान में फेयर प्राइस शॉप से वितरित किये जा रहे खाद्यात्र पर सरकार द्वारा करीब 60 हजार करोड़ रुपये सालाना खच किये जा रहे हैं इस कानून के लागू होने पर यह ब़ढकर करीब 125 हजार करोड़ रुपये हो जायेगा खच का यह तक सही नहीं है करीब 2 करोड़ सरकारी कमियों को करीब पांच लाख करोड़ रुपये प्रतिवष वेतन दिया जा रहा है कमियों का औसत वेतन 25 लाख रुपये प्रतिवष है जबकि गरीब परिवारों को दी जाने वाली अतिरिक्त खाद्यात्र सब्सिडी मात्र 1,500 रुपये प्रतिवष है 25 लाख का वेतन पाने वाले मध्यवगीय नागरिकों द्वारा 1,500 रुपये की सब्सिडी को असहनीय बताया जा रहा है

फिर भी इस कानून में कइ खामियां हैं, जिन्हें दूर किया जाना चाहिए पहली समस्या लाभाथी का चयन करने की है लाभाथी का चयन वतमान के ’बिलो‘ अथवा ’अबव‘ पॉवटी लाइन वगीकरण की तरह ही किया जायेगा तमाम अध्ययनों से स्पष्ट है कि अबव पॉवटी लाइन के अनेक लोग लाभाथी की लिस्ट में सम्मिलित हो जाते हैं, जबकि गरीब बाहर रह जाते हैं विश्व बैंक द्वारा कराये अध्ययन में पाया गया कि केवल 41 प्रतिशत खाद्यात्र ही लाभाथी तक पहुंचा है मेरा अनुमान है कि इसका तिहाइ हिस्सा यानी कुल का लगभग 30 प्रतिशत गरीब लाभाथी तक पहुंचा होगा

इस रिसाव की विशालता को समझना चाहिए मान लीजिये सरकार ने 10 किलो गेहूं 15 रुपये प्रति किलो में खरीदा 5 रुपये प्रति किलो फूड कॉरपोरेशन का खच हुआ सरकार को कुल 200 रुपये खच करने पड़े इस 10 किलो में 30 प्रतिशत यानी 3 किलो गरीब को मिला बाजार से खरीदने पर गरीब को 45 रुपये देने होते राशन दुकान से उसे यह 3 रुपये में उपलब्ध हो गया उसे 42 रुपये की सब्सिडी मिली यानी 42 रुपये की राहत गरीब तक पहुंचाने में सरकार को 200 रुपये खच करने पड़े शेष 158 रुपये अबव पॉवटी लाइन या फूड कॉरपोरेशन के कमियों को मिले रिसाव की यह समस्या प्रस्तावित कानून में और गहरी हो जायेगी, क्योंकि खरीद, भंडारण एवं वितरण का आकार और ब़ढेगा



सुझाव है कि प्रस्तावित 125 हजार करोड़ रुपये की रकम को देश के प्रत्येक नागरिक में 1,000 रुपये प्रति वष के हिसाब से वितरित कर दिया जाये इस रकम से बाजार भाव पर हर व्यक्ति 66 किलो गेहूं सालाना अथवा 55 किलो प्रति माह खरीद सकेगा, जैसा कि प्रस्तावित कानून में कहा गया है लाभाथी के चयन का संकट पूणतया समाप्त हो जायेगा सभी को यह रकम मिलने से गरीब को ’गरीब’ की मोहर से छूट मिल जायेगी टैक्सपेयर से इस रकम को टैक्स की दर ब़ढाकर वापस भी वसूल किया जा सकता है देश के हर नागरिक की खाद्य सुरषा ही नहीं, जीवन सुरषा स्थापित हो जायेगी जरूरत पर व्यक्ति इस रकम का उपयोग दवा इत्यादि के लिए कर सकेगा


नगद ट­ांसफर में प्रमुख समस्या रकम को लाभाथी तक पहुंचाने की है हमारे सामने प्रॉविडेंड फंड का उदाहरण मौजूूद है लगभग 3 करोड़ खातेदारों का हिसाब रखा जाता है यह संस्था सफल है इसे सभी 120 करोड़ नागरिकों के खाते संभालने का काय दे देना चाहिए दूसरी समस्या नगद के दुरुपयोग की है नगद मिलने पर कइ परिवार इसका शराब पीने अथवा दूसरे कार्यो के लिए दुरुपयोग करेंगे परंतु राशन के सस्ते अनाज की भी बिक्री खुलेआम की जाती है अत: नगद देने से बहुत अधिक अंतर नहीं पड़ेगा

तीसरी समस्या महंगाइ की है खाद्यात्र का दाम ब़ढाने पर नगद कम पड़ जायेगा इसका सीधा उपाय है कि नगद ट­ांसफर की रकम को महंगाइ से इंडेक्स कर दिया जाये मेरी समझ से नगद ट­ांसफर के विरोध में दिये जा रहे तक नाकाम हैं इन तकों का मूल उद्देश्य सरकारी कमियों की कल्याणकारी माफिया को पोसते रहने का रास्ता बनाये रखना है नगद ट­ांसफर का विरोध लोकतंत्र के आधार पर भी नहीं टिकता है कहा जाता है कि जनता सवोपरि है यह भी कि जनता मूख और शराबी है तो क्या शराबी को हमने सवोपरि बना दिया है? इस समस्या का सही समाधान जन शिषा है

दूसरी योजनाओं में नगद ट­ांसफर अपने देश में सफल है रोजगार गारंटी योजना भी नगद ट­ांसफर की ही है मुख्यत: इसमें काय का दिखावा किया जाता है जननी सुरषा योजना में गभवती महिलाओं को अस्पताल में प्रसव के लिए नकद पुरस्कार दिया जा रहा धनलक्ष्मी योजना में जन्म के पंजीकरण, टीकाकरण एवं बच्चे के स्कूल में जाने पर नगद पुरस्कार दिया जा रहा है इन योजनाओं की सफलता के परिणाम उपलब्ध हंै यदि गरीब द्वारा नगद का दुरुपयोग होता तो इन योजनाओं के दुष्परिणाम सामने आये होते

दूसरे देशों में भी नगद ट­ांसफर के सफल अनुभव उपलब्ध हैं फिलीपीन्स में करीब 1,000 रुपये प्रतिमाह लाभाथी को दिये जाते हैं, यदि वे टीकाकरण, अस्पताल में प्रसव एवं बच्चों को स्कूल भेजें ब्राजील में स्वास्थ चेकअप तथा स्कूल में दाखिला लेने पर नगद पुरस्कार दिया जाता है मारीशस में खाद्यात्र सब्सिडी को नगद वितरित किया जा रहा है ये अनुभव बताते हैं कि गरीब नगद अनुदान का सदुपयोग करने में सषाम है इन उदाहरणों को देखते हुए नगद ट­ांसफर के लिए कुछ शर्ते लगायी जा सकती हैं, जैसे वोट डालना, बच्चों का टीकाकरण, स्कूल में दाखिल कराना इत्यादिl l

 (लेखक अथशास्त्री हैं)

ब्रिटेन की मदद के मोहताज क्यों ?

( आज भारत को आर्थिक सहायता देने वाले ज्यादातर देश भारत में ऐसे कानूनी, प्रशासनिक और वैधानिक परिवर्तन कराने का प्रयास कर रहे हैं, जिससे हम अपनी प्राथमिकताओं से अलग उनके हित साधने वाली आर्थिक नीतियां बनाने को बाध्य हो जाएं। पिछले दिनों जब भारत ने अपने रक्षा सौदे में ब्रिटेन को दरकिनार करते हुए फ्रांस को तवज्जो दी तो ब्रिटेन में भारत को दी जाने वाली आर्थिक मदद बंद करने की मुहिम शुरू हो गई l)


पिछले दिनों ब्रिटेन में सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी के कुछ सांसदों की भारत को आर्थिक सहायता बंद करने की मुहिम शुरू होने से यहां एक नई बहस छिड़ गई है। किसी का कहना है कि इसके लिए खुद भारत जिम्मेदार है तो कहीं कहा जा रहा है कि भारत को उसकी आर्थिक सहायता ठुकरा देनी चाहिए। दूसरी ओर खुद भारत सरकार ने भी कह दिया है कि वह ब्रिटेन से आर्थिक सहायता नहीं चाहता है। बता दें कि ब्रिटेन से भारत को वर्तमान में 26 करोड़ पाउंड की आर्थिक सहायता हर वर्ष मिलती है। हाल ही में ब्रिटेन के विकास सचिव ने भारत के तीन सबसे गरीब राज्यों को केंद्रित करते हुए अगले चार साल में 110 करोड़ पाउंड की सहायता देने का अनुमोदन किया है। हालांकि ब्रिटेन द्विपक्षीय सहायता के संदर्भ में भारत के लिए सबसे ज्यादा सहायता देने वाला देश है, लेकिन इसके बाद भी वह 1 अरब डॉलर का महज एक तिहाई ही भारत को आर्थिक सहायता के रूप में देता है। वास्तव में देखा जाए तो भूमंडलीकरण के बाद विदेशों से मिलने वाली सहायता राशि निरंतर घटती ही जा रही है। अगर भारत को मिलने वाली कुल सहायता की बात करें तो भारत को वर्ष 2010-11 में दुनिया के दूसरे मुल्कों से 7.8 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता प्राप्त हुई, जबकि भारत ने अफ्रीका सहित अन्य अल्प विकसित देशों को 2.84 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता प्रदान की। ब्रिटेन में भारत को सहायता देने के मसले पर आलोचना करने वालों का कहना है कि जब भारत में 7 प्रतिशत से भी अधिक गति से आर्थिक विकास हो रहा है, क्रय शक्ति समता के आधार पर भारत आर्थिक रूप से दुनिया का तीसरा सबसे ज्यादा शक्तिशाली देश बन चुका है, अपने बलबूते पर अंतरिक्ष कार्यक्रम संचालित कर रहा है, हजारों किलोमीटर दूर मारक क्षमता वाले प्रक्षेपास्त्र बना रहा है, स्वयं का परमाणु कार्यक्रम करने में सक्षम है तो ऐसे राष्ट्र को सहायता लेने की क्या जरूरत है। यही नहीं, भारत में अरबपतियों की संख्या भी अच्छी खासी है और खुद भारत अफ्रीका सरीखे देशों को विकास के लिए भारी आर्थिक सहायता दे रहा है। ऐसे में भारत को आर्थिक देने का कोई औचित्य नहीं है। दूसरी ओर ब्रिटेन सरकार ने इस विवाद को विराम देने का प्रयास करते हुए यह कहा है कि वह भारत को दी जाने वाली आर्थिक सहायता वहां की केंद्र सरकार को न देते हुए, उन राज्यों को सीधा प्रदान करेगी, जो सबसे ज्यादा गरीब और पिछड़े हैं। ब्रिटिश सरकार का कहना है कि भारत के तीन ऐसे सबसे गरीब राज्यों को चिह्नित करते हुए वहां के गरीबों खासतौर पर महिलाओं और बच्चों के आर्थिक उत्थान पर यह आर्थिक सहायता केंद्रित रहेगी। ब्रिटेन के विकास सचिव द्वारा अनुमोदित 1.1 अरब पाउंड की अगले चार वर्षो के लिए सहायता का आवंटन भी इसी तर्ज पर होगा। तर्क कुछ भी दिए जाएं, वास्तविकता यह है कि ब्रिटेन द्वारा भारत को दी जाने वाली आर्थिक सहायता के बारे में यह विवाद भारत और ब्रिटेन के बीच रिश्तों में आई कड़वाहट के कारण पैदा हुआ है। दरअसल, पिछले दिनों भारत ने ब्रिटेन में बने लड़ाकू विमान टाइफून की जगह फ्रांस में बने रफेल जेट के साथ रक्षा सौदा करने को ज्यादा तवज्जो दी। इस बहस में नया मोड़ तब आया, जब ब्रिटेन के अखबार संडे टेलीग्राफ ने भारतीय विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी के एक बयान का जिक्र किया, जिसमें उन्होंने राज्यसभा में यह कहा था कि भारत को ब्रिटेन द्वारा दी जाने वाली सहायता राशि की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह राशि भारत के लिहाज से बहुत ही कम है। इस पूरे प्रकरण के कारण ब्रिटेन के कुछ सांसद भड़के हुए हैं। ऐसा लगता है कि ब्रिटेन भारत में लगभग 180 साल शासन करने के कारण अपनी औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर नहीं आ पा रहा है। ब्रिटेन को यह नहीं भूलना चाहिए कि आज परिस्थितियां अलग हैं। भारत का पहले जहां दुनिया के विदेशी व्यापार में भारत का हिस्सा मात्र आधा प्रतिशत होता था, वह अब बढ़कर 1.5 तक पहुंच चुका है। आज भारत से लगभग 250 अरब डॉलर से भी अधिक की वस्तुओं और सेवाओं का निर्यात होता है। इसी तरह भारत 370 अरब डॉलर की वस्तुओं का आयात भी करता है। आज से करीब 10 साल पहले राजग के शासन काल में वित्तमंत्री जसवंत सिंह ने पहली बार सरकार के बजट में गरीब मुल्कों को भारत से आर्थिक सहायता देने के लिए प्रावधान रखा था। वर्ष 2003 में भारत सरकार ने यह निर्णय लिया कि अब वह केवल छह देशों अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान, यूरोपीय समुदाय और रूस से ही आर्थिक सहायता लेगी और उस समय सरकार ने 7,491 करोड़ रुपये के द्विपक्षीय ऋणों को वापस भी कर दिया। हालांकि यह सही है कि आज भारत में शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सामाजिक सेवाओं के लिए अधिक से अधिक धन राशि की जरूरत है ताकि देश की गरीब जनता के लिए अधिकाधिक सुविधाएं जुटाई जा सकें। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि यह आर्थिक सहायता अधिकतर ऋणों के रूप में होती है और उसके साथ ब्याज सहित देनदारी भी जुड़ी होती है। यही नहीं, विदेशों से मिलने वाली सहायता में बहुत-सी शर्ते भी साथ में जुड़ी होती हैं, जिसका असर देश की संप्रभुता और आर्थिक विकास की दिशा पर पड़ता है। आज हमारा देश सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पूरी दुनिया में अपना एक मुकाम बना चुका है। भारत की अकेली एक कंपनी टीसीएस द्वारा अकेले ही 7.5 अरब डॉलर के सॉफ्टवेयर का निर्यात किया जाता है। अपार व्यावसायिक अवसरों के कारण भारत को अप्रैल 2000 से लेकर नवंबर 2011 तक 390 अरब डॉलर का विदेशी निवेश (प्रत्यक्ष एवं संस्थागत) प्राप्त हो चुका है। दुनिया भर में फैले भारतीयों द्वारा वर्ष 2010 में 5.4 अरब डॉलर से भी अधिक भारत को भेजे गए। भारत अपने प्रवासियों द्वारा दुनिया से राशि प्राप्त करने वाला सबसे बड़ा देश है। चीन को भी अपने प्रवासियों से भारत से कम राशि प्राप्त होती है। ऐसे में ब्रिटेन की 26 करोड़ पाउंड यानी कोई दो हजार करोड़ रुपये की सहायता राशि कोई ऐसा बड़ा मुद्दा नहीं है, जिसके कारण भारत के आर्थिक विकास या गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में कोई विशेष अंतर आएगा। भारत में चार बड़े फ्लाई ओवर बनाने में ही इतनी धन राशि खप जाती है। केंद्रीय सरकार का वर्ष 2011-12 का बजट ही 12 लाख 57 हजार करोड़ रुपये का था। ऐसे में देश के सम्मान के साथ समझौता करते हुए मात्र 26 करोड़ पाउंड की वार्षिक सहायता (जो अधिकतर ऋण के रूप में ही है) लेने की कोई जरूरत देश को नहीं है। आज भारत को आर्थिक सहायता (ऋण) देने वाले देश भारत में ऐसे कानूनी, प्रशासनिक और वैधानिक परिवर्तन कराने का प्रयास कर रहे हैं, जिससे देश अपनी प्राथमिकताओं से अलग उनके हित साधने वाली आर्थिक नीतियां बनाने को बाध्य हो जाए। विश्व बैंक द्वारा सामाजिक सेवाओं में विदेशी कंपनियों की दावेदारी बढ़ाते हुए विविध प्रकार के दबाव बनाने के कई मामले सामने आए हैं। ऐसे में भारत को विदेशों पर अपनी निर्भरता को समाप्त करते हुए आत्मनिर्भरता के आधार पर देश के विकास को आगे बढ़ाने का काम करना होगा। ब्रिटेन से आने वाली सहायता को वापस भेजते हुए इसकी शुरुआत की जा सकती है।
(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)

हमारी तरक्की, उनकी झुंझलाहट

ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका के बाद अब ब्रिटेन में भी नस्लीय भावना खतरनाक रूप लेती जा रही है। खासतौर से भारतीयों के खिलाफ। ब्रिटेन की श्वेत आबादी में अश्वेतों के खिलाफ नस्लीय भावना और हिंसा की प्रवृत्ति तो बढ़ ही रही है। ब्रिटिश सरकार के फैसलों में भी नस्लीय असर दिखना शुरू हो गया है। कैमरून सरकार ने कठोर आव्रजन नीति के जरिए गैर-यूरोपीय मुल्कों खासतौर से एशिया के बाशिंदों के लिए नो इंट्री का बोर्ड लगा दिया है। प्रस्तावित नीति के तहत 31,000 पाउंड से कम कमाई वाला गैर-यूरोपीय नागरिक ब्रिटेन की नागरिकता हासिल नहीं कर सकता। सालाना तनख्वाह का यह मानक 49,000 पाउंड तक बढ़ाया जा सकता है। यह तुगलकी कानून न केवल बाहर से ब्रिटेन आने वाले गैर-यूरोपीय नागरिकों पर चोट है, बल्कि इसमें ब्रिटेन के अंदर से भी एशियाई नागरिकों की बेदखली का भी इंतजाम है। दरअसल, आव्रजन नीति के आर्थिक मानकों के तहत ब्रिटेन की आधी आबादी आ जाएगी। इसमें करीबन दो तिहाई नागरिक एशियाई होंगे। यानी ब्रिटेन में रह रहे भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के युवा अपने मूल देश या बाहर के किसी देश की लड़की से विवाह नहींकर पाएंगे। अपने मां-बाप को साथ नहींला पाएंगे, क्योंकि उनकी तनख्वाह मानक से कम है। ब्रिटिश सरकार के इस फैसले पर पश्चिमी मीडिया में कोई हलचल नहीं देखी गई, लेकिन भारत सरकार ब्रिटेन के इस नस्लीय हमले को यों ही हजम कर गई। कोई लाख तर्क दे, लेकिन यह विशुद्ध नस्लीय हमला ही है, जो अश्वेत नागरिकों को आतंकवादी, अपराधी और अराजकतावादी होने के संदेह से परखता है। दम तोड़ती अर्थव्यवस्था और सिकुड़ते रोजगार ने ब्रिटेनवासियों में इस नस्लीय भावना को मजबूत किया है। अब वहां की कंजरवेटिव सरकार इसे कानूनी जामा पहना रही है। उनका भौड़ा तर्क है कि राष्ट्र हित सर्वोपरि है और जनांकाक्षाओं को पूरा करना उनकी जिम्मेदारी है। यह फैसला मानवाधिकारों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन और पूंजीवादी देश का गरीबों पर उपहास है। आपको याद होगा कि पिछले साल लंदन में दंगा हुआ, सैकड़ों श्वेत नागरिक खासकर युवा शॉपिंग मॉल और प्रतिष्ठानों से सामान लूटते दिखाए गए। दंगाइयों ने भारतीय प्रतिष्ठानों, घरों को भी निशाना बनाया। पिछले दिनों एक भारतीय छात्र अनुज बिदवे की गोली मारकर हत्या कर दी गई। इसके कुछ दिन बाद एमबीए की पढ़ाई कर रहे भारतीय छात्र प्रवीण रेड्डी पर हमला हुआ। ये घटनाएं साबित करती हैं कि ब्रिटेन में नस्लीय भावना तेजी से उभर रही है और ब्रिटिश सरकार की आक्रामक नीति इसे हवा दे रही है। ब्रिटेन की श्वेत आबादी का मानना है कि वहां की बढ़ती आबादी, सामाजिक सुरक्षा के बढ़ते बोझ के जिम्मेदार एशियाई नागरिक ही हैं। ये उनके रोजगार छीन रहे हैं, जबकि अपनी प्रतिभा और विशिष्टता के बलबूते भारतीयों ने वहां सफलता के झंडे गाड़े हैं। सवाल उठता है कि ब्रिटिश सरकार का यह फैसला नस्लीय भावना से प्रेरित नहींहै तो सारे बाहरी मुल्कों पर आव्रजन नीति लागू क्यों नहीं की गई। यूरोपीय संघ की नाफरमानी के लिए बदनाम ब्रिटेन ने दूसरे यूरोपीय मुल्कों को नई आव्रजन नीति के दायरे में रखना उचित क्यों नहींसमझा। दरअसल, उसे अन्य यूरोपीय मुल्कों की प्रतिक्रिया का डर था। लेकिन भारत, चीन और अन्य एशियाई देशों को वह दब्बू समझता है। भारत से लड़ाकू विमानों की बिक्री का ठेका न मिल पाने से ब्रिटिश प्रधानमंत्री और वहां के राजनेताओं ने जो हेकड़ी दिखाई, वह सब बयां करती है। उन्होंने तो भारत को ब्रिटिश मदद बंद करने तक की धौंस दे दी। अच्छी बात यह है कि भारत की तरफ से उन्हें करारा जवाब मिला। साम्राज्यवादी मानसिकता उन पर हावी है। नीतिगत मामला हो या बाजार, पश्चिमी मुल्कों को पराजय नहींपचती। आखिर यह मजाक नहीं तो क्या है कि ब्रिटिश कंपनी में कार्यरत भारतीय या कोई अन्य गैर यूरोपीय नागरिक अपने बीवी-बच्चों को वहां साथ नहीं रख सकता, अगर उसकी सैलरी 31,000 पाउंड से कम है। अगर तनख्वाह मानक से ऊपर हो तब भी कर्मचारी की पत्नी या पति को अंग्रेजी दक्षता परीक्षा पास करनी होगी। अगर भारत भी ऐसे प्रतिक्रियावादी फैसले लागू कर दे तो कितने ब्रिटिश हिंदी की परीक्षा में पास होंगे। वास्तव में अगर कैमरून सरकार अपने इरादों में कामयाब रही तो ब्रिटेन के बहुलवादी समाज का तानाबाना छिन्न-भिन्न हो जाएगा। ब्रिटेन में एशियाई मूल के छोटे व्यवसायियों पर इसका दूरगामी असर पड़ेगा। ऐसे में जरूरी है कि भारत समेत एशियाई देश इस पर न सिर्फ अपनी आपत्ति जताएं, बल्कि सख्त कदम उठाने के इरादे भी जाहिर करें।