Tuesday, February 21, 2012

एनसीटीसी पर केंद्र और राज्यों के बीच तकरार से आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई कमजोर होती देख रहे हैं- संजय गुप्त

केंद्रीय गृह मंत्रालय की पहल पर गठित एनसीटीसी अर्थात राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र के खिलाफ राज्य सरकारों की तेज होती लामबंदी से यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या हमारे देश के नेता आतंकवाद से लड़ने के लिए वास्तव में प्रतिबद्ध हैं? आगामी एक मार्च से काम शुरू करने जा रहे एनसीटीसी को गृह मंत्रालय एक ऐसी सुरक्षा एजेंसी के रूप में देख रहा है जो प्रभावी ढंग से आतंकवाद को नियंत्रित करने का काम कर सके। एनसीटीसी का काम राज्य सरकारों और विशेष रूप से उनके आतंकवाद निरोधक दस्तों के साथ तालमेल कर आतंकी गतिविधियों पर लगाम लगाना है। इस केंद्र का गठन गैर कानूनी गतिविधि निवारक कानून के तहत किया गया है और यह कोई नया कानून नहीं है। एनसीटीसी को लेकर राज्य सरकारों की चाहे जो आपत्तियां हों, इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि आतंकवाद पर नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक समान नीतियों का निर्माण करने और उन्हें प्रभावी ढंग से लागू करने की आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति किसी ऐसी एजेंसी के जरिये ही हो सकती है जिसमें केंद्र और राज्यों, दोनों की भूमिका हो। अभी तक यह देखने में आता रहा है कि राज्यों में आतंकवाद पर नियंत्रण के तौर-तरीके अलग-अलग हैं। राज्य सरकारें पुलिस के काम में हस्तक्षेप ही नहीं करतीं, बल्कि वे अन्य राज्यों अथवा केंद्र से तालमेल में बाधक भी बनती हैं। केंद्र और राज्यों की सुरक्षा एजेंसियों में तालमेल के अभाव के न जाने कितने मामले सामने आ चुके हैं। आतंकवाद से लड़ने में राज्य सरकारों में इच्छाशक्ति की कमी और आतंकी संगठनों के मामले में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण अपनाने के मामले भी रह-रहकर सामने आते रहे हैं। यह तब है जब सभी मानते हैं कि आतंकियों का कोई जाति-मजहब नहीं होता। प्रत्येक आतंकी घटना के बाद केंद्र और राज्य के बीच आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाना अब एक सामान्य बात हो गई है। इन स्थितियों में राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक के गठन का स्वागत किया जाना चाहिए। एनसीटीसी के गठन पर राज्य सरकारों की आपत्तियों पर केंद्र का यह तर्क है कि इसका गठन करना उसका संवैधानिक अधिकार है और चूंकि इस संस्था का निर्माण पहले से बने कानून के आधार पर किया गया है इसलिए राज्यों से सलाह की जरूरत नहीं। हो सकता है कि ऐसा ही हो, लेकिन आखिर जिस काम में राज्यों का सहयोग आवश्यक है उसमें उनकी सलाह क्यों नहीं ली गई? यह ठीक नहीं कि किसी केंद्रीय संगठन या संस्था के निर्माण में राज्यों को विश्वास में लेने से बचा जाए। बावजूद इसके यह भी उचित नहीं कि अपने अधिकारों में अतिक्रमण की आशंका के आधार पर राज्य सरकारें आतंकवाद निरोधक केंद्र के खिलाफ खड़ी हो जाएं। निश्चित रूप से संघीय ढांचे की रक्षा होनी चाहिए, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि आतंकवाद राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को प्रभावित करने के साथ देश की संप्रभुता के लिए बड़ा खतरा बन गया है। यह निराशाजनक है कि जब राज्यों को आतंकवाद से लड़ने के लिए आगे आना चाहिए तब वे अपने अधिकारों के हनन का शोर मचाने में लगे हुए हैं। ऐसा लगता है कि आंतरिक सुरक्षा के सवाल पर एक बार फिर से संकीर्ण स्वार्थो की राजनीति हो रही है। ऐसी ही राजनीति पोटा के मामले में भी हुई थी और टाडा के मामले में भी। कांग्रेस ने तो टाडा को निरस्त करने को एक चुनावी मुद्दा बना लिया था। सत्ता में आने के बाद वह ऐसा करके ही मानी। इन दोनों कानूनों पर राजनीति करने का काम कांग्रेस के साथ-साथ उसके सहयोगी दलों ने भी किया था। आज यही काम गैर कांग्रेसी दल कर रहे हैं। यह एक तथ्य है कि एनसीटीसी के विरोध की कमान संभालने वाले नवीन पटनायक राज्यों के अधिकारों का सवाल उठाने के साथ-साथ तीसरे मोर्चे की संभावना भी टटोल रहे हैं। इससे इंकार नहीं कि कानून एवं व्यवस्था राज्यों का विषय है, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि विभिन्न राज्यों अथवा केंद्र एवं राज्य सरकारों के बीच समन्वय के अभाव में आतंकी एवं नक्सली संगठनों के साथ-साथ माफिया तत्व मजबूत होते जा रहे हैं। समन्वय के अभाव की एक मिसाल अभी हाल ही में तब मिली जब दिल्ली पुलिस ने आरोप लगाया कि महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते की हड़बड़ी के चलते इंडियन मुजाहिदीन का सरगना रियाज भटकल मुंबई से भागने में सफल रहा। बाद में महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते ने दिल्ली पुलिस के एक मुखबिर को गिरफ्तार कर लिया। दिल्ली पुलिस ने इसका बदला महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते के एक दल को दिल्ली में कार्रवाई करने से रोक कर लिया। दोनों के बीच तकरार इतनी बढ़ी कि मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया। समस्या केवल केंद्र और राज्यों की एजेंसियों में तालमेल में कमी की ही नहीं है, क्योंकि इजरायली दूतावास की कार पर हमले के मामले में यह देखने में आ रहा है कि दिल्ली पुलिस राष्ट्रीय जांच एजेंसी और राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के साथ मिलकर काम करने को तैयार नहीं। आंतरिक सुरक्षा के मामले में केंद्र और राज्यों की तकरार के चलते ही संघीय पुलिस सरीखे किसी तंत्र का निर्माण नहीं हो पा रहा है। राज्य सरकारें जानबूझकर यह देखने से इंकार कर रही हैं कि अनेक देशों में संघीय पुलिस प्रभावी ढंग से काम कर रही है। दरअसल अंतरराज्यीय अपराधों पर अंकुश तभी लग सकता है जब पुलिस का कोई संघीय स्वरूप सक्रिय हो। अमेरिका आतंकवाद पर लगाम लगाने में सक्षम है तो अपनी संघीय पुलिस एफबीआई के जरिये। अनेक यूरोपीय देशों में भी संघीय पुलिस सफलता से काम कर रही है। इसमें दो राय नहीं कि यदि कानून एवं व्यवस्था राज्यों का मामला है तो आंतरिक सुरक्षा की देखरेख केंद्र की जिम्मेदारी है। केंद्र को राज्यों को यह विश्वास दिलाना होगा कि वह अपनी शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करेगा। फिलहाल ऐसा होता है। यह किसी से छिपा नहीं कि सीबीआइ कई बार केंद्र सरकार की कठपुतली एजेंसी के रूप में काम करती है। केंद्रीय संगठनों के दुरुपयोग की आशंका के कारण ही राज्यों ने लोकपाल विधेयक पारित नहीं होने दिया। राज्यों को यह भय सताता रहता है कि यदि केंद्रीय संस्थाओं का अधिकार बढ़ा तो उनके अधिकारों का हनन हो सकता है। यह भय निराधार नहीं, लेकिन यह समझना कठिन है कि ऐसी ही आशंका आतंकवाद से नियंत्रण के मामले में क्यों जताई जा रही है? कम से कम आतंकवाद से लड़ने के मामले में तो राजनीति नहीं की जानी चाहिए। यदि इस काम में भी राजनीति आड़े आएगी तो आतंकवाद से लड़ना संभव नहीं होगा। आतंकवाद से लड़ने का काम सुरक्षा एजेंसियों का है और यह उन्हें ही सौंपा जाना चाहिए।

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